इनको सत्ता मिलती है, देश भुगतता है
।। राजेंद्र तिवारी ।। ( Collected from Hindi Newspaper 'Prabhat Khabar')
कल्पना करिये कि देश में 2011 में ही लोकपाल कानून बन गया होता. वैसा कानून जैसा देश की जनता चाहती थी. कल्पना करिये, यह कानून और उसके तहत लोकपाल अस्तित्व में होता और ‘कोलगेट’, राबर्ट वाड्रा द्वारा जमीनों के खेल, गडकरी की कंपनियों के खेल, लुई खुर्शीद के एनजीओ के खेल और वालमार्ट द्वारा लॉबिंग पर 125 करोड़ खर्च करने के मामले सामने आते. लोकपाल इन सबकी स्वत:स्फूर्त जांच कर रहा होता. हम सब समझ सकते हैं कि इस जांच में कौन से लोग दायरे में आते? इससे किसको फायदा होता? इसके निशाने पर कौन लोग आते? इन सवालों का जवाब हम सबको पता है और इन जवाबों की रोशनी में संसद में राजनीतिक दलों का व्यवहार परखिये.
कल्पना करिये कि देश में 2011 में ही लोकपाल कानून बन गया होता. वैसा कानून जैसा देश की जनता चाहती थी. कल्पना करिये, यह कानून और उसके तहत लोकपाल अस्तित्व में होता और ‘कोलगेट’, राबर्ट वाड्रा द्वारा जमीनों के खेल, गडकरी की कंपनियों के खेल, लुई खुर्शीद के एनजीओ के खेल और वालमार्ट द्वारा लॉबिंग पर 125 करोड़ खर्च करने के मामले सामने आते. लोकपाल इन सबकी स्वत:स्फूर्त जांच कर रहा होता. हम सब समझ सकते हैं कि इस जांच में कौन से लोग दायरे में आते? इससे किसको फायदा होता? इसके निशाने पर कौन लोग आते? इन सवालों का जवाब हम सबको पता है और इन जवाबों की रोशनी में संसद में राजनीतिक दलों का व्यवहार परखिये.
साफ है कि किसी को देश की चिंता नहीं है, सबको अपने वोट की चिंता है. संसद में हर मसले पर देशिहत वोट की राजनीति के नीचे दब जाते हैं. क्या आप जानते हैं कि अगस्त 2010 के बाद से संसद में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने संबंधी 10 विधेयक सरकार ने संसद में पेश किये, लेकिन इनमें से एक भी विधेयक पारित नहीं हुआ. इनमें से चार- लोकपाल, लोकायुक्त, व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन और प्रिवेंशन ऑफ मनी लांडरिंग (संशोधन) विधेयक इस शीत सत्र में ही आने थे. लेकिन क्या आपने सुना कि किसी ने संसद में इस मुद्दे को उठाया भी हो. जबकि वोट बैंक बनानेवाले मुद्दों पर तमाम तरह की धमिकयां और लॉबिंग सुनायी देती रहती है. कभी किसी राजनीतिक दल ने इनको लेकर केंद्र को चेतावनी दी?
* गुजरात के बहाने
गुजरात चुनाव इन दिनों देश भर में चर्चा का विषय है. सबकी निगाहें नरेंद्र मोदी पर लगी हुई हैं. टीवी चर्चाओं में भाग लेनेवाले विद्वान लोग भी दो खेमों में साफ-साफ बंटे हुए हैं, एक वे जो मोदी को जिता रहे हैं और एक वे जो मोदी को हारते हुए देखना चाहते हैं. एक ही तथ्य को दोनों ही अपने-अपने पक्ष में परिभाषित कर रहे हैं.
गुजरात चुनाव इन दिनों देश भर में चर्चा का विषय है. सबकी निगाहें नरेंद्र मोदी पर लगी हुई हैं. टीवी चर्चाओं में भाग लेनेवाले विद्वान लोग भी दो खेमों में साफ-साफ बंटे हुए हैं, एक वे जो मोदी को जिता रहे हैं और एक वे जो मोदी को हारते हुए देखना चाहते हैं. एक ही तथ्य को दोनों ही अपने-अपने पक्ष में परिभाषित कर रहे हैं.
एक मोदी को विकास पुरुष मानता है और दूसरा गुजरात दंगों का गुनहगार. लेकिन जहां मोदी समर्थक खुल कर गुजरात दंगों के लिए गोधरा को जिम्मेदार ठहरा कर मोदी के विकास का गुणगान करने में नहीं हिचकते, वहीं विरोधी पक्ष गुजरात के विकास आंकड़ों के जरिये यह साबित करने में लगा है कि विकास कहां है.
विरोधी पक्ष (न राजनीतिक लोग और न विद्वान लोग) इस बार गुजरात दंगों की बात ही नहीं कर रहा. शायद उसे लग रहा होगा कि इसका फायदा मोदी को ही होगा. अपने देश की राजनीति की विडंबना ही यह रही है कि वह सत्ता के तराजू में हर चीज को तौल कर देखती है, अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और मान्यताओं को अनदेखा करना पड़े, तो पड़े. अपने को फायदा होना चाहिए बस. नहीं तो इस देश में, जहां आज से 25-30 साल पहले प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच का होना फाख्र की बात मानी जाती थी, आज उपहास का विषय बनता जा रहा है.
अब सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को प्रमोशन देने संबंधी विधेयक पर तमाम राजनीतिक दलों की कलाबाजियां देखिये. किसी को देश की फिक्र है क्या? जो विरोध कर रहे हैं, उनको भी वोट कंसालिडेट करने में यह विधेयक मददगार दिखायी दे रहा है, लिहाजा ऊपर से विरोध है, पर करेंगे कुछ ऐसा कि विधेयक पारित हो जाये. यही वह राजनीति है, जो सत्ता के लिए संविधान में संशोधन से लेकर ताला खोलने तक का काम करती है. उनको तो सत्ता मिलती है और भुगतता देश है.
संसद पर हमला सिर्फ आतंकवादी नहीं कर रहे
फांसी के मामले में हमारे देश की अतिसंवेदनशील पार्टी के एक संवेदनशील नेताजी का बयान वाकई माकूल है. नेताजी की मांग थी कि संसद हमले के गुनहगार अफजल गुरु को हमले की बरसी के दिन यानी 13 दिसंबर को ही फांसी पर लटका दिया जाये.
उनका यह बयान 11 दिसंबर को आया था. 13 दिसंबर को उनकी पार्टी ने अफजल गुरु की फांसी की मांग को लेकर संसद में खूब हंगामा मचाया. लेकिन, सरकार ने अतिसंवेदनशील दल की मांग ठुकरा कर बुरा किया. मेरी अपील है कि उसकी भावनाओं की कद्र की जाये, 13 दिसंबर को फांसी नहीं हो पायी तो क्या, 17 दिसंबर के पहले-पहले फांसी दे दी जाये.
एक बात साफ कर दूं, कोई यह न समङो कि मैं 13 और 17 तारीख का जिक्र गुजरात चुनाव से जोड़ कर कर रहा हूं. जब वे ही इसे गुजरात चुनाव से जोड़ कर नहीं देख रहे हैं, तो भला मैं क्यों यह जुर्रत करूं. दरअसल, मामला चुनाव का नहीं, फांसी के प्रति संवेदनशीलता का है. कसाब की फांसी के मामले में उनकी संवेदनशीलता का तो पूरा देश गवाह है. यदि वे इतना संवेदनशील नहीं होते, तो क्या कसाब फांसी से लटकाया जाता? कतई नहीं. कसाब की फांसी और अफजल गुरु की आसन्न फांसी का सारा श्रेय और राजनीतिक लाभ इस अतिसंवेदनशील पार्टी को ही मिलना चाहिए. अफजल को शीघ्रातिशीघ्र लटकाइए. जब कसाब को लेकर किसी ने एतराज नहीं जताया, तो अफजल पर भला कोई क्यों करेगा (बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को छोड़ कर)? आखिर अफजल ने हमारी संसद पर हमला किया है.
वैसे संसद पर हमले के कई रूप हो सकते हैं. एक तो अफजल गुरु एंड कंपनी का दुस्साहसिक आतंकवादी रूप. और दूसरा.. राडिया प्रकरण, लाखों करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदान घोटाला, विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन, खुदरा कारोबार में एफडीआइ के लिए लॉबिइंग आदि की संस्कृति को अपने संसदीय लोकतंत्र में किस रूप में पारिभाषित किया जाना चाहिए? और सदन के भीतर अमर्यादित उठा-पटक, हो-हंगामा को क्या संज्ञा दी जाये. यह सवाल है.. ‘‘अरे गोली मारो सवालों को, बोफोर्स तोप से उड़ा दो’’- दो चिरप्रतिद्वंद्वी दलों के दो चिर-चिर प्रतिद्वंद्वी नेता चीख रहे थे. वे नीरा राडिया जैसी दिखनेवाली एक सुंदरी के साथ लॉबी में थे. कोरस में उवाचने लगे, ‘‘लोकतंत्र की बात करते हो? असल लोकतंत्र तो महाबली अमेरिका का है, जहां लॉबिइंग कानूनी है. अपने देश में हम यही काम करें तो घूसखोर-भ्रष्टाचारी कहे जायें. पहले इस भेदभाव वाले लोकतंत्र को समाप्त करो, फिर अपने सवालों का जवाब ढूंढ़ना. लॉबिइंग की जांच अनडेमोक्रेटिक है. आखिर हमारा आदर्श अमेरिका ही है न!’’
जावेद इस्लाम
प्रभात खबर, रांची
http://www.prabhatkhabar.com/node/243072
http://www.prabhatkhabar.com/node/243165
जावेद इस्लाम
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