Saturday, October 12, 2019

How To Keep Your Body Healthy

*प्राकृतिक चिकित्सा - १ : स्वास्थ्य क्या है?*

स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। कहावत भी है- ‘पहला सुख निरोगी काया’। कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे। क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है।

ऋषियों ने कहा है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है। यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन हमारे लिए भारस्वरूप हो जाता है।

एक विदेशी विद्वान् डा. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है- ‘उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।’ एक शायर के शब्दों में- ‘कद्रे-सेहत मरीज से पूछो, तन्दुरुस्ती हजार नियामत है।’

प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य क्या है अर्थात् किस व्यक्ति को हम स्वस्थ कह सकते हैं? साधारण रूप से यह माना जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक रोग न होना ही स्वास्थ्य है। यह एक नकारात्मक परिभाषा है और सत्य के निकट भी है, परन्तु पूरी तरह सत्य नहीं। वास्तव में स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध क्रियाशीलता से है। जो व्यक्ति शरीर और मन से पूरी तरह क्रियाशील है, उसे ही पूर्णतः स्वस्थ कहा जा सकता है। कोई रोग हो जाने पर क्रियाशीलता में कमी आती है, इसलिए स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।

प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में स्वास्थ्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी गयी है। ऐलोपैथी और होम्योपैथी के चिकित्सक किसी भी प्रकार के रोग के अभाव को ही स्वास्थ्य मानते हैं। वे रोग को या उसके अभाव को तो माप सकते हैं, परन्तु स्वास्थ्य को मापने का उनके पास कोई पैमाना नहीं है। रोग के अभाव को मापने के लिए उन्होंने कुछ पैमाने बना रखे हैं, जैसे हृदय की धड़कन, रक्तचाप, लम्बाई या उम्र के अनुसार वजन, खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा आदि। इनमें से एक भी बात अनुभव द्वारा निर्धारित सीमाओं से कम या अधिक होने पर वे व्यक्ति को रोगी घोषित कर देते हैं और अपने ज्ञान के अनुसार उसकी चिकित्सा भी शुरू कर देते हैं।

इसके विपरीत आयुर्वेद में स्वास्थ्य की पूर्ण परिभाषा दी गयी है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में ऋषि ने लिखा है-
समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
अर्थात् जिसके तीनों दोष (वात, पित्त एवं कफ) समान हों, जठराग्नि सम (न अधिक तीव्र, न अति मन्द) हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएँ (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएँ भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ), मन और इन सबका स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है।

*प्राकृतिक चिकित्सा - २ : स्वास्थ्य और जीवनीशक्ति*

मनुष्य के लिए स्वस्थ रहना कोई कठिन कार्य नहीं है। वास्तव में स्वस्थ रहना पूरी तरह स्वाभाविक है और अस्वस्थ रहना एकदम अस्वाभाविक है। कई लोगों को भ्रम रहता है कि सभी लोग बीमार पड़ते रहते हैं, हम भी पड़ गये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए वे बीमार रहने और उसका इलाज चलते रहने को साधारण बात मानते हैं। वे अपनी आमदनी का एक बड़ा भाग डाक्टरों और दवाओं पर खर्च करना भी अनिवार्य मानते हैं। ऐसे लोग जानते ही नहीं कि स्वास्थ्य क्या होता है और लगातार दवाएँ खाते रहने पर भी (और वास्तव में उन्हीं के कारण ही) वे हमेशा बीमार बने रहते हैं तथा अन्त में उसी स्थिति में समय से पहले ही परलोक सिधार जाते हैं। वस्तुतः दवाइयाँ बीमारियों को दूर नहीं करतीं, बल्कि अधिकांश बीमारियों का कारण होती हैं।

वास्तव में स्वस्थ रहना बहुत ही आसान है और बीमार पड़ जाने पर स्वस्थ होना भी कठिन नहीं है। यदि हम खान-पान और रहन-सहन के साधारण नियमों का पालन करें, तो हमेशा स्वस्थ और क्रियाशील रहते हुए अपनी पूर्ण आयु भोग सकते हैं। एक बार महान् आयुर्वेदिक चिकित्सक चरक ने अपने शिष्यों से पूछा था- ‘कोऽरुक्? कोऽरुक्? कोऽरुक्?’ अर्थात् ”स्वस्थ कौन है? स्वस्थ कौन है? स्वस्थ कौन है?“ एक बुद्धिमान शिष्य ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया था- ‘हित भुक्, ऋत् भुक्, मित भुक्’ अर्थात् ”हितकारी भोजन करने वाला, ऋतु अनुकूल और सात्विक उपायों से प्राप्त भोजन करने वाला तथा अल्प मात्रा में भोजन करने वाला ही स्वस्थ है।“

इस कहानी में स्वास्थ्य का पूरा रहस्य छिपा हुआ है। सन्तुलित मात्रा में सात्विक खान-पान करने वाला न केवल सदा स्वस्थ रहता है, बल्कि उसमें परिस्थितियों के अनुकूल ढलने और रोगों से लड़ने की शक्ति भी पर्याप्त मात्रा में होती है। इसी शक्ति को विद्वानों ने जीवनीशक्ति कहा है। जिस व्यक्ति में जितनी अधिक जीवनीशक्ति होती है, वह व्यक्ति उतना ही अधिक स्वस्थ और क्रियाशील रहता है और उसकी आयु भी अधिक होती है।

आजकल लोगों में जीवनीशक्ति का बहुत अभाव पाया जाता है। जरा सा मौसम बदलने पर ही वे बीमार पड़ जाते हैं और इसे स्वाभाविक बात मानकर मौसम को ही अपनी बीमारी का कारण बताकर दोष देते हैं। परन्तु मौसम तो सभी के लिए बदलता है। यदि यही बीमारियों का कारण होता, तो सभी लोग बीमार पड़ जाते। कई लोग पहले से ही डरे रहते हैं कि अब मौसम बदलने वाला है, तो बीमार पड़ना ही है। वास्तव में मौसम का बदलना नहीं, बल्कि जीवनीशक्ति की कमजोरी ही उनके बीमार पड़ने का प्रमुख कारण होती है।

जीवनीशक्ति कमजोर होने के कई कारण होते हैं। उनमें सबसे पहला है- अनुचित खान-पान और दूसरा है- मौसम के विपरीत चलना। हम स्वाद या चलन के वशीभूत होकर मनमानी चीजें खाते-पीते रहते हैं, जिनको हमारा शरीर स्वीकार नहीं कर पाता। उनको पचाने और उनका अधिकांश अनावश्यक भाग शरीर से बाहर निकालने में हमारी बहुत सी जीवनीशक्ति खर्च हो जाती है। इसी प्रकार हम जाड़ों में हीटर के सामने बैठे रहते हैं या गर्म कपड़ों से लदे रहते हैं, गर्मियों में कूलर और एयरकंडीशनर वाले कमरों में बैठे रहते हैं तथा बरसात में घर में घुसे रहते हैं। इससे हमारा शरीर मौसम के थोड़े से परिवर्तन को भी झेलने में असमर्थ हो जाता है।

स्वस्थ रहने और अपनी जीवनीशक्ति बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम मौसम के साथ-साथ चलें अर्थात् जहाँ तक हो सके जाड़ों में जाड़ा सहन करें, गर्मियों में गर्मी सहन करें और बरसात में भीगें। मौसम अपनी सहनशक्ति से बाहर होने पर ही हमें कृत्रिम उपायों का सहारा लेना चाहिए।



*प्राकृतिक चिकित्सा - ३*

*जीवन शैली और स्वास्थ्य*

इस लेख माला की पिछली कड़ी में हमने दो मुख्य बातें कही थीं- 
1. अस्वस्थ रहना अस्वाभाविक है, स्वस्थ रहना ही स्वाभाविक है। 
2. अस्वस्थ हो जाने पर सरलता से स्वस्थ हुआ जा सकता है। 

एक आदरणीय सज्जन ने इस दूसरे बिन्दु को स्पष्ट करने का आग्रह किया है। इस कड़ी में हम यही चर्चा करेंगे। 

इस बात पर प्रायः सभी चिकित्सक एकमत हैं कि हमारी जीवन शैली का हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बंध है। उचित और सात्विक जीवन शैली से जहाँ उत्तम स्वास्थ्य बनता है और बीमारियाँ दूर रहती हैं, वहीं गलत जीवन शैली से स्वास्थ्य बिगड़ता है और अनेक प्रकार की बीमारियाँ घेर लेती हैं। वास्तव में आकस्मिक दुर्घटनाओं को छोड़कर लगभग सभी बीमारियाँ हमारी गलत जीवन शैली के कारण होती हैं और जीवन शैली में सुधार करके हम उन बीमारियों से पूर्णतः नहीं तो बहुत सीमा तक छुटकारा पा सकते हैं। पूर्णतः इसलिए नहीं कि कई बार गलत जीवन शैली से इतना स्थायी दुष्प्रभाव पड़ चुका होता है कि उसको पुनः पूर्व स्थिति में लाना लगभग असम्भव होता है। लेकिन ऐसे मामले बहुत कम होते हैं। अधिकांश बीमारियों को हम अपनी जीवन शैली में आवश्यक सुधार करके ठीक कर सकते हैं।

जीवन शैली से हमारा तात्पर्य अपने खान-पान, दिनचर्या, रहन-सहन, सामाजिक व्यवहार और कार्यप्रणाली से है। ये सभी तत्व जीवन शैली के अंग हैं और सभी महत्वपूर्ण हैं।

खान-पान जीवन शैली का सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंग है। हम जो भी खाते-पीते हैं उसका हमारे स्वास्थ्य पर तत्काल और सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि हमारा खान-पान शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक हो। स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाला अन्न, मौसमी सब्जियाँ और फल, गाय का शुद्ध दूध और उनसे बनी स्वास्थ्यवर्धक वस्तुएँ सात्विक खान-पान माना जाता है। इसके विपरीत वस्तुएँ तथा अंडा, माँस, मद्य आदि सभी तामसी आहार हैं। सात्विक भोजन से ही तन और मन सात्विक बनता है और तामसी भोजन से तामसी बनता है। कहावत भी है- जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन। जैसा पियोगे पानी, वैसी बनेगी वाणी।

हमारी दिनचर्या भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। समय पर सोना, जगना, नित्यक्रियायें करना और भोजन करना अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य हैं। जल्दी जगना और जल्दी सोना स्वास्थ्य के मूल सिद्धांत हैं। सुबह देर तक सोते रहने और रात्रि में देर तक जगे रहने का बुरा परिणाम देरी से ही सही हमें भुगतना ही पड़ता है। इसलिए अपवादों को छोड़कर हमें अपने निश्चित समय पर उठ जाना और सो जाना चाहिए। इन दोनों बातों के पालन के लिए यह भी आवश्यक है कि हम निर्धारित समय पर स्नान, जलपान, दोपहर का भोजन और सायंकाल का भोजन करें। इन बातों में मनमानी करने का दुष्परिणाम हमें ही भुगतना पड़ता है।

प्रायः लोग यहीं सबसे अधिक गलती करते हैं। सायंकालीन भोजन के समय वे चाय-नाश्ता करते हैं और फिर देर रात्रि में भोजन करते हैं और उसके तत्काल बाद सो जाते हैं। यह बहुत भयावह है। देर से भोजन करने के कारण उसे पचने का पर्याप्त समय और वातावरण नहीं मिलता। इससे वह बहुत देर से पचता है और फिर बहुत देर तक हमारे मलाशय में पड़े रहकर विकार उत्पन्न करता है। देर से सोने के कारण वे देर से ही जागते हैं, इससे उनको योग-व्यायाम आदि करने का समय भी नहीं मिलता और वे हमेशा अस्वस्थ होने का अनुभव करते हैं। देर से भोजन करने के कारण शरीर स्थूल हो जाना और पेट निकल आना साधारण बात है।

रहन-सहन के अन्तर्गत हमारा पहनावा, घर का वातावरण और आस-पड़ोस आते हैं। हमारा पहनावा मौसम के अनुकूल और समाज की परम्परा के अनुसार होना चाहिए। कहावत है कि ‘जैसा देश, वैसा वेश।’ घर का वातावरण भी स्वास्थ्य के अनुकूल और आनन्दप्रद होना चाहिए, ताकि बाहर से घर आकर हमें शान्ति के कुछ पल प्राप्त हो सकें। हमारा आस-पड़ोस भी अपने अनुकूल परिवारों और व्यक्तियों से पूर्ण होना चाहिए, जिनके बीच आपसी सामंजस्य हो, भले ही बहुत अधिक घनिष्टता न हो। जो व्यक्ति तनावपूर्ण वातावरण में रहते हैं, उनके स्वास्थ्य पर देर-सबेर बुरा प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है। इसके अतिरिक्त हमें मौसम के साथ-साथ चलना चाहिए। स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि हम गर्मियों में गर्मी सहन करें, जाड़ों में जाड़ा सहन करें और बरसात में कभी-कभी भीगें भी। मौसम अपनी सहनशक्ति से बाहर होने पर ही हमें कूलर, एसी, हीटर आदि कृत्रिम उपायों का सहारा लेना चाहिए।

रहन-सहन के अन्तर्गत हमारे आवागमन के साधन भी आते हैं। बहुत से लोग पैदल चलने में लज्जा का अनुभव करते हैं और थोड़ी दूर सब्जी खरीदने जाने जैसे मामूली कार्यों के लिए भी कार, मोटरसाइकिल, स्कूटी आदि वाहनों का उपयोग करते हैं। एक-दो मंजिल चढ़ने के लिए सीढ़ियों की जगह लिफ्ट का प्रयोग करना भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसलिए जहाँ तक सम्भव हो हमें वाहनों का उपयोग कम करना चाहिए और पैदल चलने तथा सीढ़ियों से चढ़ने उतरने को प्राथमिकता देनी चाहिए।

हमारा सामाजिक व्यवहार भी स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब हम समाज के एक अंग के रूप में उसके कार्यों में भाग लेते हैं, दूसरों के दुःख-सुख में उचित व्यवहार करते हैं, परिचितों से मेल-जोल रखते हैं, तो हमारे मन में एक प्रकार की प्रसन्नता और संतुष्टि का निर्माण होता है, जिसका सुपरिणाम हमें अच्छे स्वास्थ्य के रूप में प्राप्त होता है। इसलिए जहाँ तक सम्भव हो, हमें अपनी शक्ति के अनुसार सामाजिक कार्यों में तन-मन-धन से अवश्य भाग लेना चाहिए।

स्पष्ट है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए ही नहीं बल्कि सामान्य रूप से स्वस्थ रहने के लिए भी अपनी जीवन शैली को सही रखना चाहिए। गलत जीवन शैली का दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर अवश्य पड़ता है। जिन व्यक्तियों की जीवन शैली गलत होती है, भले ही वे जवानी में स्वास्थ्य पर उसके बुरे प्रभावों का अनुभव न कर पायें, लेकिन जैसे ही उनकी उम्र 40-45 के आसपास पहुँचती है, वैसे ही उनके स्वास्थ्य में अनेक समस्यायें दिखायी पड़ने लगती हैं। रक्तचाप कम या अधिक हो जाना, शुगर की शिकायत हो जाना या मूत्र सम्बंधी रोग हो जाना तो उनके लिए सामान्य बात है। इन रोगों को कोई दवा दूर नहीं कर सकती चाहे आप जीवन भर दवाइयाँ लेते रहें। लेकिन अपनी जीवन शैली में सुधार करके बहुत सरलता से इन रोगों से छुटकारा पा सकते हैं।

*प्राकृतिक चिकित्सा - ४*

*स्वास्थ्य पर दवाओं का कुप्रभाव*

बचपन से ही लोगों के मन में यह बात बैठ जाती है कि यदि कोई व्यक्ति बीमार है या उसे स्वास्थ्य सम्बंधी मामूली सी भी शिकायत है, तो वह दवा के बिना ठीक ही नहीं होगा। इसलिए अस्वस्थ होते ही वे किसी न किसी दवा की तलाश करते हैं या डाक्टरों-वैद्यों के पास भागते हैं। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वह बीमारी या शिकायत क्यों पैदा हुई अर्थात् उसका कारण क्या है। यदि वे इसका पता लगा लें, तो वह कारण दूर कर देने पर अस्वस्थता भी दूर हो सकती है। परन्तु लोग इतना सोचने का कष्ट नहीं करते और प्रायः मौसम या किसी अज्ञात वस्तु को अपनी बीमारी का कारण मान लेते हैं और विश्वास करते हैं कि शीघ्र ही कोई दवा खा लेने पर वे स्वस्थ हो जायेंगे। वे बीमार पड़ने और उसके लिए दवा खाने को इतनी स्वाभाविक बात समझते हैं कि दवा के बिना स्वस्थ होने की बात उन्हें अस्वाभाविक और अविश्वसनीय लगती है।

यदि घर में कोई बड़ा-बूढ़ा होता है, तो वह घरेलू चीजों से बने नुस्खे से उनकी बीमारी दूर करने की कोशिश करता है और आश्चर्य नहीं कि कई बार ये नुस्खे सफल भी हो जाते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि ये नुस्खे मूलतः आयुर्वेद की बुनियाद पर बने होते हैं। लेकिन अधिकतर ये भी असफल हो जाते हैं, क्योंकि ये बीमारी के मूल कारण को ध्यान में रखे बिना ही आजमाये जाते हैं। आयुर्वेद का प्रसार कम हो जाने के कारण उसका ज्ञान भी सीमित हो गया है और अधिकांश लोग केवल सुने-सुनाए नुस्खों को ही आजमाते हैं।

एक दवा असफल हो जाने पर लोग उससे बेहतर दवा की तलाश करते हैं। यह तलाश प्रायः अंग्रेजी दवाओं पर जाकर समाप्त होती है। कई बार वे स्वयं उन्हें खरीद लाते हैं और कभी-कभी डाक्टरों के पास जाकर लिखवा लाते हैं। वे सोचते हैं कि ये दवाएँ बहुत पढ़े-लिखे डाक्टर ने लिखी हैं, योग्य लोगों द्वारा बड़े-बड़े कारखानों में बनायी गयी हैं, नाम भी अंग्रेजी में हैं और महँगी भी हैं, इसलिए अवश्य ही इनमें कुछ गुण होगा। इसलिए वे पूरी निष्ठा और विश्वास से उनका सेवन करते हैं। अधिकांश में उन्हें प्रारम्भिक लाभ भी हो जाता है, जिससे वे डाक्टरों और उनकी दवाओं के प्रशंसक बन जाते हैं।

परन्तु कुछ दिन रोग दबे रहने पर वह फिर से उभरता है, क्योंकि ये दवाएँ किसी रोग के कारण को दूर नहीं करतीं, बल्कि केवल उसके लक्षणों को कम कर देती हैं। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को सिरदर्द है। आयुर्वेद की दृष्टि से इसके 175 कारण हो सकते हैं। लेकिन रोगी दर्द के कारण की चिन्ता किए बिना केवल उससे तत्काल मुक्ति पाने से लिए दर्दनाशक दवा की शरण में चला जाता है और कुछ समय के लिए उससे मुक्त भी हो जाता है। दर्दनाशक दवाएँ दर्द के कारण को दूर करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि दर्द का अनुभव न हो इस दृष्टि से बनायी गयी होती हैं। दूसरे शब्दों में, वे हमारे नाड़ी तंत्र के उन तंतुओं को निष्क्रिय कर देती हैं, जो दर्द की सूचना हमारे मस्तिष्क को देते हैं। इससे हमें दर्द का पता ही नहीं चलता और हम समझते हैं कि दर्द चला गया। परन्तु वास्तव में दर्द जाता ही नहीं, क्योंकि उसका जो मूल कारण है वह दूर नहीं हुआ होता।

सिरदर्द ही नहीं वरन् सभी प्रकार के रोगों में यही अनुभव होता है। उल्टी आ रही है, तो दवा से उसे रोक देते हैं। दस्त आ रहे हैं, तो दस्तों को रोक देते हैं। जुकाम हो गया है, तो कफ का निकलना रोक देते हैं। इससे रोग के मूल कारण शरीर में ही बने रहते हैं और अन्दर ही अन्दर प्रबल होते रहते हैं। रोग के वे लक्षण किसी दिन फिर जोर से उभर आते हैं अर्थात् रोग वापस आ जाता है और पहले से अधिक जोर से आता है। ऐसा होते ही मरीज फिर डाक्टरों की शरण में जाता है और इस बार डाक्टर कोई अधिक तेज दवा लिख देते हैं। कई बार उनसे फिर आराम मिल जाता है।

बहुत बार ऐसा भी होता है कि रोग किसी नये रूप में बाहर आता है और डाक्टर उसी के अनुसार दवाओं की संख्या और मात्रा बढ़ा देते हैं। ये दवाएँ फिर किसी अन्य रोग को पैदा कर देती हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, वैसे-वैसे दवाएँ भी बढ़ती हैं और जैसे-जैसे दवाएँ बढ़ती हैं, वैसे-वैसे रोग भी बढ़ता जाता है। इस प्रकार रोग और दवाएँ साथ-साथ बढ़ते चले जाते हैं और रोगी हमेशा के लिए उनके चंगुल में फँस जाता है। ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ यह कहावत ऐसे ही अनुभवों से बनी है।

अंग्रेजी दवाओं के पार्श्व प्रभाव (साइड इफैक्ट) से सभी परिचित हैं। दवाओं की शीशियों और डिब्बों पर अनिवार्य रूप से यह लिखा होता है कि इस दवा के क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सभी ऐलोपैथिक दवाएँ रासायनिक पदार्थों से बनी होती हैं। हमारा शरीर उन्हें स्वीकार करने को राजी नहीं होता, इसलिए उन्हें बाहर निकालने में जुट जाता है। यही कारण है कि ऐलोपैथिक दवाएँ खाने वाले व्यक्ति के मल-मूत्र का रंग तुरन्त बदल जाता है और उनमें बहुत बदबू भी आती है। रोगी के शरीर की बहुत सी शक्ति इन दवाओं से लड़ने और बाहर निकालने में खर्च हो जाती है, जिसके कारण उसकी जीवनीशक्ति कम हो जाती है। इससे शरीर रोगों से लड़ने में अक्षम हो जाता है और नये-नये रोगों का घर बन जाता है।

*प्राकृतिक चिकित्सा - ५*

*ऐलोपैथी प्रणाली का मकड़जाल*

वर्तमान में पूरे संसार में जिस चिकित्सा प्रणाली का वर्चस्व या बोलबाला है वह है ऐलोपैथी। लगभग 99% डॉक्टर और अस्पताल इसी प्रणाली के हैं। बडे बडे चिकित्सा महाविद्यालय केवल इसी की शिक्षा देते हैं जिनमें से हर साल लाखों की संख्या में नये डॉक्टर बनकर निकलते हैं और उन पर सरकारें अरबों-खरबों रुपये व्यय करती हैं। इनकी तुलना में अन्य पद्धतियों के चिकित्सक बहुत कम संख्या में हैं और उनके अस्पताल तो उँगलियों पर गिने जाने लायक ही हैं। सरकारें भी इन पर नाममात्र का खर्च करती हैं।

ऐलोपैथी की व्यापकता का कारण यह नहीं है कि यह रोगों के इलाज में अन्य पद्धतियों की तुलना में अधिक सफल है या रोगों को जड़ से ठीक करती है। इसका कारण केवल इतना है कि इसमें मरीज़ को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता, सारे काम डॉक्टर और नर्स करते हैं। मरीज़ को केवल गोलियाँ गटककर पड़े रहना पड़ता है। जबकि अन्य चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद और प्राकृतिक में मरीजों को परहेज वाले भोजन के साथ टहलने, व्यायाम करने, योग-प्राणायाम करने और अन्य क्रियायें करने के लिए भी कहा जा सकता है।

यही कारण है कि जैसे ही कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है या उसके साथ कोई दुर्घटना होती है, तो उसके परिवारी सबसे पहले ऐलोपैथी या अंग्रेज़ी डॉक्टर या अस्पताल की ओर ही भागते हैं और रोगी को उनके हवाले कर देते हैं।

इन डॉक्टरों या अस्पतालों में जाने पर भी कोई रोग या रोगी ठीक नहीं होता। क्योंकि तरह-तरह की महँगी जाँचों के बावजूद कई बार तो उन्हें यही पता नहीं होता कि रोगी को क्या बीमारी है। बस यों ही अनुमान के आधार पर अँधेरे में तीर मारते रहते हैं और दवाइयाँ खिलाते रहते हैं, जिनसे रोग और अधिक बिगड़ जाता है।

कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि डाक्टरों और अस्पतालों की बढ़ती हुई संख्या से रोगों या रोगियों की संख्या में कोई कमी नहीं आती। वास्तव में ये रोगों को कम करने का नहीं बल्कि फैलाने का काम करते हैं और देश की आबादी घटाने में अपना योगदान देते हैं। एक बार इस्रायल में सभी सरकारी और प्राइवेट डाक्टरों और अस्पतालों ने हड़ताल कर दी थी। यह हड़ताल तीन महीने तक चली थी। सारे समाजशास्त्री यह देखकर दंग रह गये कि उन तीन महीनों में इस्रायल में मृत्यु-दर एकदम नीचे आ गयी थी। तीन माह बाद जब हड़ताल समाप्त हुई तो मृत्यु-दर फिर पहले जितनी हो गयी। ऐसे ही अनुभव और भी कई देशों में हुए हैं।

यह आश्चर्यजनक है कि अभी तक न तो सरकार की ओर से और न डॉक्टरों के संगठनों की ओर से विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों का कोई तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। ऐसे अध्ययन के अभाव में कोई नहीं कह सकता कि किन रोगों में किन परिस्थितियों में कौन सी चिकित्सा प्रणाली कितनी उपयोगी या व्यर्थ है। बस भेडचाल की तरह लोग अंग्रेज़ी दवाओं और डॉक्टरों की ओर भागते हैं तथा अपने स्वास्थ्य, धन और जीवन का नाश कर रहे हैं।

मेरे विचार से ऐलोपैथी की उपयोगिता केवल दुर्घटनाओं के समय होती है। हाथ-पैरों की हड्डियाँ टूट जाने पर या कहीं गम्भीर चोट लग जाने पर वे तत्काल मरहम-पट्टी कर सकते हैं और खून का बहना रोक सकते हैं। प्लास्टर आदि चढ़ा देने से मरीज को थोड़ी राहत मिलती है, क्योंकि इससे हड्डियाँ सही जगह बैठ जाती हैं। हालांकि हड्डियों का फिर से जुड़ना पूरी तरह प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसमें कोई दवा कोई काम नहीं करती। साधारण भोजन, दूध आदि लेते रहने से ही कुछ ही समय में हड्डियाँ अपने आप जुड़ जाती हैं।

डॉ एस.एस.एल. श्रीवास्तव मेरठ मेडीकल कालेज के मेडीसिन विभाग के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है- ‘चिकित्सा विज्ञान की भ्रांतियाँ’। इस पुस्तक में उन्होंने आधुनिक अर्थात् ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान की तमाम मान्यताओं और दावों की जमकर बखिया उधेड़ी है। यह पुस्तक सभी डाक्टरों को अवश्य पढ़नी चाहिए।

ऐलोपैथी की सबसे बड़ी बुराई यह है कि वह शल्य चिकित्सा पर जरूरत से ज्यादा जोर देती है। यदि शरीर का कोई अंग किसी कारणवश काम करना बन्द कर देता है या विकृत हो जाता है, तो वे उसको फिर से काम करने लायक बनाने का प्रयास कम करते हैं। ज्यादातर वे उसे काटकर शरीर से अलग कर देते हैं और कई बार उसके स्थान पर उधार लिया हुआ अंग लगा देते हैं। ऐसे अंग तमाम प्रयास करने पर भी स्वाभाविक रूप से काम नहीं कर पाते और वह व्यक्ति हमेशा अर्थात् अपने जीवनभर रोगी बना रहता है।

अब समय आ गया है कि प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली और स्वास्थ्यप्रद जीवनशैली का अधिक से अधिक प्रचार करके सामान्य जनता को ऐलोपैथी के मकड़जाल से मुक्त किया जाये और देशवासियों का अमूल्य जीवन बचाया जाये।

*प्राकृतिक चिकित्सा - ६*

*रोग क्यों होते हैं?*

रोगों से बचने और उन्हें दूर करने के उपाय जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि रोग होने का कारण क्या है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान कीटाणुओं को विभिन्न रोगों का कारण मानता है और रोगों को समाप्त करने के लिए कीटाणुओं को समाप्त करना आवश्यक समझता है। यह कीटाणु सिद्धान्त ही ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की नींव है। यह नींव बहुत कमजोर है। कई बार सरकारें किसी रोग विशेष के कीटाणुओं को समाप्त करने के लिए बड़े जोर-शोर से अभियान चलाती हैं। चेचक, मलेरिया आदि रोगों को समाप्त करने के लिए ऐसे अभियान वर्षों तक चलाये गये हैं। परन्तु कीटाणु पूरी तरह समाप्त करने पर भी ये रोग समाप्त नहीं हुए और कभी भी किसी को भी हो जाते हैं।
पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान भी इसी कीटाणु सिद्धान्त पर आधारित है। यह अभियान प्रारम्भ करते समय दावा किया गया था कि पाँच-छः वर्षों में पोलियो जड़ से समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह अभियान चलते हुए २५ वर्ष से अधिक समय हो जाने और अरबों रुपये खर्च करने पर भी पोलियो समाप्त नहीं हो रहा है। कई ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं कि किसी बच्चे को पाँच-पाँच बार पोलियो ड्राॅप पिलाये जाने के बाद भी पोलियो हो गया, जबकि पहले वह स्वस्थ था। किसी डाक्टर या विशेषज्ञ के पास इसका उत्तर नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। ऐसे मामलों से कीटाणु सिद्धान्त की निरर्थकता ही सिद्ध होती है।

प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि कीटाणु किसी रोग के कारण नहीं, बल्कि लक्षण होते हैं। दूसरे शब्दों में, कीटाणुओं से कोई रोग नहीं होता, बल्कि रोग से ही वे कीटाणु पैदा होते हैं। कीटाणुओं को समाप्त करके आप उस रोग के लक्षणों को कुछ समय के लिए समाप्त कर सकते हैं, परन्तु वह रोग समाप्त नहीं हो सकता। यदि शरीर में रोगों से लड़ने की पर्याप्त शक्ति है, जिसे हम जीवनी शक्ति कहते हैं, तो किसी भी रोग के कीटाणु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है कि सभी प्रकार के कीटाणु हानिकारक नहीं होते, बल्कि बहुत से तो रोगों से बचने में हमारी सहायता करते हैं। हमारे खून में ही लाल और श्वेत दो प्रकार के रक्तकण होते हैं। इनमें से लाल रक्तकण रोगों से मुकाबला करने में हमारी सहायता करते हैं। जब बाहर से किसी रोग के कीटाणु प्रवेश करते हैं, तो शरीर को स्वस्थ रखने वाले रक्तकण उनको मार भगाते हैं या समाप्त कर देते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की मान्यता है कि रोगों का मूल कारण हमारे शरीर में रहने वाले विकार या विजातीय द्रव्य होते हैं। रोगों के कीटाणुओं को इन विजातीय द्रव्यों में पलने और बढ़ने का अवसर मिलता है। यदि शरीर में विजातीय द्रव्य न हों, तो किसी रोग के कीटाणु शरीर में आते ही मर जायेंगे और शरीर स्वस्थ बना रहेगा।

हमारा शरीर विजातीय द्रव्यों या विकारों को निरन्तर निकालता रहता है। शरीर से मल निष्कासन के कई मार्ग या अंग होते हैं, जैसे गुदा, मूत्रांग, त्वचा, नाक और कान। इन मार्गों से शरीर में बनने वाला विभिन्न प्रकार का मल लगातार निकलता रहता है। यदि ये अंग अपना कार्य सुचारु रूप से करते रहते हैं, तो शरीर स्वस्थ बना रहता है। यदि इनके कार्य में कोई रुकावट आती है, तो शरीर में विकार इकट्ठे होने लगते हैं। जब ये विकार बहुत बढ़ जाते हैं, तो शरीर उन्हें तेजी से निकालने लगता है। इसी को हम रोग कहते हैं। उदाहरण के लिए, शरीर में कफ अधिक एकत्र हो जाने पर प्रकृति उसे नाक और गले के रास्ते तेजी से निकालने लगती है, जिसको हम खाँसी या जुकाम कहकर पुकारते हैं।

इस प्रकार आये दिन होने वाले जुकाम, खाँसी, उल्टी, दस्त, बुखार, पेटदर्द, सिरदर्द आदि शरीर में एकत्र हो गये विकारों के सूचक और उन्हें निकालने के माध्यम हैं। यह हमारे ऊपर प्रकृति माता की बड़ी कृपा है कि वह हमें स्वस्थ करने का प्रयास स्वयं करती रहती है, परन्तु यह हमारा अज्ञान है कि हम शरीर को स्वस्थ करने के इन प्राकृतिक प्रयासों को रोग समझ लेते हैं और दवाओं द्वारा उन प्रयासों में रुकावट डालते हैं। यदि हम विकारों को अपने आप निकलने दें, तो वे रोग अपना कार्य करके स्वयं ही चले जाते हैं।

वास्तव में ऐलोपैथी के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि रोग क्यों होते हैं। वे कीटाणुओं को ही उनका कारण बताते हैं। इसमें उनके पास कोई तर्क नहीं होता, बल्कि दुराग्रह ही होता है। उदाहरण के लिए, कोई डाक्टर यह नहीं बता पाता कि बुखार क्यों आता है। वे गर्मी और सर्दी दोनों मौसमों को बुखार का कारण बताते हैं और यदि ऐसा कोई कारण समझ में नहीं आता, तो उसे वायरल फीवर कह देते हैं। इसी तरह उन्हें किसी भी रोग का कारण समझ में न आने पर उसे इन्फैक्शन बता देते हैं। उनके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं होता कि बुखार में शरीर का तापमान क्यों बढ़ जाता है। यदि बुखार सर्दी से आया है, तो शरीर क्यों गर्म होता है, उन्हें इसका कोई कारण मालूम नहीं।

प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि बुखार कोई रोग नहीं है, बल्कि शरीर में एकत्र हो गये विकारों को जलाने का प्रकृति का एक प्रयास है। इसे यों समझिए कि शरीर में एकत्र विकार एक प्रकार का ज्वलनशील पदार्थ या ईंधन है। जब वह विकार शरीर की सहनशक्ति से बाहर हो जाता है, तो शरीर उसे जलाने लगता है। इससे शरीर का तापमान बढ़ जाता है, जिसे हम बुखार कहते हैं। यदि हम प्रकृति के इस कार्य में हस्तक्षेप न करें और विकारों को जलने दें, तो सारे विकार जल जाने पर बुखार अपने आप ठीक हो जाता है और शरीर पहले से अधिक स्वस्थ हो जाता है। इस प्रकार बुखार कोई रोग नहीं है, बल्कि एक प्रकार की दवा है, जो हमें स्वस्थ कर देती है।

बुखार आना इस बात का सूचक है कि प्रकृति की रोग निवारक शक्तियाँ अभी भी हमारे शरीर में सक्रिय हैं। दूसरे शब्दों में, बुखार रोगी में जीवनीशक्ति बची रहने का सबूत है अर्थात् रोगी स्वस्थ हो सकता है। इसीलिए एक प्राकृतिक चिकित्सक कहा करते थे- ‘तुम मुझे बुखार दो, मैं तुम्हें आरोग्य दूँगा।’ इसलिए यदि हम बुखार को जबर्दस्ती दबायेंगे, तो अगली बार वह और अधिक तेज होकर निकलेगा या किसी अन्य बड़े रोग के रूप में निकलेगा। इसके साथ ही रोगी की जीवनीशक्ति कमजोर हो जाएगी। इससे आगे चलकर रोगी को कई रोग हो सकते हैं।


प्राकृतिक चिकित्सा - ७

ऐलोपैथी पर निर्भरता की विवशता

इस लेखमाला की पिछली दो तीन कड़ियों में हमने ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की चर्चा की है। इसकी दवाओं के बुरे प्रभाव और रोगों को ठीक करने में असफलताओं के बड़े प्रतिशत के बावजूद अधिकांश रोगी ऐलोपैथी की शरण में जाने को बाध्य होते हैं। इसके कई कारण हैं।

पहला कारण है भेड़चाल! लोग पुरानी और सस्ती आयुर्वेदिक या होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति या बिना दवा की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उपचार कराना पिछड़ापन समझते हैं और महँगी ऐलोपैथी से इलाज कराने में अपनी शान मानते हैं। भले ही रोगी ठीक न हो, पर इसका दोष वे अपनी मूर्खता को देने की जगह रोगी के भाग्य को देते हैं।

दूसरा कारण है विकल्पहीनता। आजकल अच्छे वैद्यों की बहुत कमी है जो केवल नाड़ी देखकर रोग को पहचान लें और उसकी सही चिकित्सा कर सकें। यही हाल  होम्योपैथिक और प्राकृतिक चिकित्सकों का है। इनकी तुलना में ऐलोपैथिक डॉक्टर अधिक आसानी से सब जगह उपलब्ध हो जाते हैं। इसलिए लोग परिणाम और खर्च की चिन्ता किये बिना उनके पास ही जाते हैं।

विशेष रूप से आकस्मिक दुर्घटनाओं के समय तो ऐलोपैथिक अस्पतालों में जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। यद्यपि शल्य चिकित्सा मूलत: आयुर्वेद की देन है, लेकिन आजकल के आयुर्वेदिक चिकित्सकों को इसका कोई ज्ञान नहीं है और न आयुर्वेद महाविद्यालयों में इसकी शिक्षा दी जाती है। इसलिए किसी दुर्घटना की स्थिति में या गम्भीर बीमारी में ऐलोपैथिक अस्पतालों में जाना सबकी मजबूरी है।

ऐलोपैथी पर निर्भरता का तीसरा कारण यह है कि उसके पैथोलॉजी और रेडियोलॉजी विभागों में रोगों की जाँच की ऐसी सुविधायें उपलब्ध हैं जो अन्य चिकित्सा पद्धतियों में कहीं नहीं हैं। प्राचीन काल के वैद्यों को ऐसे परीक्षणों की आवश्यकता कभी नहीं पडती थी, क्योंकि वे रोगी की नाड़ी, जीभ, आँखें और मूत्र को देखकर ही रोग और उसके कारणों का पता लगा लेते थे। लेकिन अब ऐसे वैद्य लगभग समाप्त हो गये हैं। परिणाम स्वरूप ऐसे परीक्षणों पर ऐलोपैथी का एकाधिकार हो गया है।

अाजकल रोगी के रक्त, मूत्र, मल, हृदय आदि की जाँच करके ही उसके रोग को पहचानने की कोशिश की जाती है और ऐसी जाँच प्राय: हर रोगी को करानी ही पड़ती हैं। अधिकांश आयुर्वेदिक और प्राकृतिक चिकित्सक भी ऐसी जाँच रिपोर्टों पर निर्भर करते हैं, क्योंकि रक्त और मूत्र के परीक्षण से तत्काल यह जाना जा सकता है कि रोगी के शरीर में किस तत्व की कमी या अधिकता है। ऐसी खराबी का पता चलने पर ऐलोपैथिक चिकित्सक जहाँ दवाइयाँ लिख देते हैं, वहीं अनुभवी प्राकृतिक चिकित्सक भोजन में किसी वस्तु की मात्रा घटा या बढ़ाकर ही उस खराबी को दूर कर लेते हैं।

हालाँकि यह भी सत्य है कि ये जाँच रिपोर्ट ही रोगी के ठीक होने या उसके रोग को ठीक ठीक समझने की गारंटी नहीं हैं। यह देखा गया है कि अनेक जाँचों के बाद भी कई बार रोग का सही कारण पकड़ में नहीं आता और डॉक्टर अधूरी जानकारी या अनुमान के आधार पर ही चिकित्सा करते रहते हैं जो अधिकतर असफल रहती है।

अधिक समय नहीं गुज़रा जब एंटीबायोटिक दवाओं को रोगियों के लिए वरदान माना गया था और यह दावा किया गया था कि इनसे बडे बडे रोगों को सरलता से दूर किया जा सकता है। लेकिन अनुभव से सिद्ध हो गया कि एंटीबायोटिक दवायें रोगी के शरीर को भीतर से खोखला कर देती हैं, जिससे वह रोगों का सामना करने में असमर्थ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, उसकी जीवनशक्ति बहुत कमजोर हो जाती है।

आजकल दर्दनाशक दवाओं (पेनकिलर) के लिए भी ऐलोपैथी की बहुत प्रशंसा की जाती है और दावा किया जाता है कि वे किसी भी प्रकार के दर्द से तत्काल आराम दिला देती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि दर्दनाशक दवाएं रोगी की नाड़ियों को इस तरह निष्क्रिय कर देती हैं कि वे दर्द की सूचना हमारे मस्तिष्क को देने में असमर्थ हो जाती हैं। दर्द के वास्तविक कारण को दूर करने में ये दवाएँ पूरी तरह असफल रहती हैं।

यह भी देखा गया है कि बार बार दर्दनाशक दवायें लेने से रोगी का नाड़ी तंत्र बुरीतरह क्षतिग्रस्त हो जाता है और उसके कारण अनेक नये रोग पैदा हो जाते हैं। लेकिन पीड़ित रोगी अपने अज्ञान के कारण इनका सेवन करते रहते हैं और हानि उठाते हैं।

इसलिए सबसे अच्छा यही है कि हम कभी दवाओं के चक्कर में न पड़ें और सात्विक खान-पान तथा संतुलित जीवनशैली अपनाकर सदा स्वस्थ रहें। यदि दैवयोग से कभी बीमार पड़ भी जायें तो प्राकृतिक उपचार अपनाकर सरलता से उस बीमारी को जड़ से मिटाया जा सकता है।

— डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
मो. 9919997596

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