Sunday, October 20, 2019

Some Useful Information About Eating and Drinking

*प्राकृतिक चिकित्सा - ८*

*तीव्र रोग और जीर्ण रोग*

प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है- तीव्र रोग (acute disease) और जीर्ण रोग (chronic diseases)।

तीव्र रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो अचानक होते हैं, रोगी को बहुत कष्ट देते हैं और कुछ दिनों में चले जाते हैं। उल्टी, दस्त, सर्दी, ज़ुकाम, खाँसी, बुखार, विभिन्न प्रकार के दर्द आदि तीव्र रोग कहे जाते हैं।

जीर्ण रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो धीरे-धीरे विकसित होते हैं और लम्बे समय तक बने रहते हैं। रोगी उनके साथ ही जीना सीख लेता है। कभी कभी ये रोग जीवन भर  रोगी का पीछा नहीं छोड़ते। मधुमेह (डायबिटीज़), रक्तचाप (ब्लडप्रैशर), हृदय रोग, गठिया, बवासीर, हार्निया, साइटिका, मोटापा, लकवा, एसिडिटी, मिर्गी, बहरापन, दमा (अस्थमा), पागलपन, गुर्दों के रोग आदि कुछ जीर्ण रोग हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि प्रकृति हमारे शरीर को रोगमुक्त करने का कार्य स्वयं करती है। इसलिए तीव्र रोग जैसे उल्टी, दस्त, जुकाम, बुखार, दर्द आदि शरीर के विकारों को निकालने के प्रकृति के प्रयास हैं। यदि हम इन प्रयासों में प्रकृति की सहायता करते हैं, तो बहुत शीघ्र रोगमुक्त हो सकते हैं और आगे हो सकने वाले बड़े रोगों से भी बचे रह सकते हैं। लेकिन यदि हम इन प्रयासों में बाधा डालते हैं, तो वे विकार निश्चय ही किसी अन्य रूप में या बड़े रोग के रूप में बाहर निकलेंगे, जिससे हमें अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा।

हमारे अस्वस्थ होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे शरीर के मल निकालने वाले अंग ठीक प्रकार से कार्य नहीं करते। हम उन पर कार्यों का इतना बोझ लाद देते हैं कि वे थक जाते हैं और शिथिल हो जाते हैं। अधिकांश रोग पेट की खराबी कब्ज के कारण होते हैं। जब हमारा खान- पान असंतुलित होता है, हम हानिकारक वस्तुएँ खाते हैं या खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में खा जाते हैं, तो हमारी आँतों पर भोजन पचाने में बहुत भार पड़ता है। वे भोजन को ठीक प्रकार से पचा नहीं पातीं और उनके द्वारा बने हुए मल का निष्कासन भी समय से नहीं हो पाता। इससे बचा हुआ मल आँतों में ही चिपक जाता है और सड़ता रहता है। इसी को कब्ज कहते हैं और यही अधिकांश रोगों का मूल कारण होता है।

इसी प्रकार जब हम हानिकारक पेय पदार्थ जैसे चाय, काफी, कोल्ड ड्रिंक आदि अधिक पीते हैं और पानी कम पीते हैं, तो हमारे गुर्दों पर कार्य का बोझ बहुत बढ़ जाता है और मूत्र पर्याप्त मात्रा में नहीं बनता। इससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। नमक का अधिक सेवन भी गुर्दों का कार्य बढ़ा देता है।

लहमारे शरीर के बहुत से विकार त्वचा से पसीने के रूप में निकलते हैं। जब हम पर्याप्त शारीरिक श्रम या व्यायाम नहीं करते, तो पसीना कम निकलता है। साथ ही तरह-तरह के केमिकलों से बने हुए साबुन से स्नान करने के कारण रोम छिद्र बन्द हो जाते हैं, जिससे पसीना नहीं निकल पाता। वे विकार त्वचा के भीतर एकत्र होते जाने के कारण कई प्रकार के चर्म रोग जैसे फोड़े, फुंसी, दाद, खाज, सफेद दाग आदि पैदा हो जाते हैं।

इसी प्रकार कफ को शरीर में ही रोक देने के कारण खाँसी, जुकाम, ब्रोंकाइटिस, साइनस, दमा आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। ये सभी विकार खून में भी मिलते रहते हैं, जिससे उच्च या निम्न रक्तचाप, हृदय रोग, क्षय रोग आदि हो जाते हैं।

कई बार जुकाम हो जाने पर डाक्टर लोग ऐसे कैप्सूल दे देते हैं, जिनसे कफ का निकलना रुक जाता है। रोगी समझता है कि जुकाम ठीक हो गया, परन्तु वास्तव में कफ शरीर में ही एकत्र होता रहता है और बाद में किसी नए रूप जैसे ब्रोंकाइटिस, साइनस, दमा आदि रोगों के रूप में सामने आता है। एक व्यक्ति कई दिनों से जुकाम से पीड़ित था और सो नहीं पा रहा था। एक डाक्टर ने कोई तेज दवा दे दी, जिससे जुकाम रुक गया और रोगी को अच्छी नींद आयी। वह रोगी कहने लगा कि आज मैं बहुत गहरी नींद सोया हूँ। किसी जानकार ने इस पर टिप्पणी की कि आज तुमने दमा का बीज बो दिया है।

वास्तव में बड़े-बड़े रोग शरीर में इसलिए हो जाते हैं कि हम छोटे-छोटे रोगों को अर्थात् उनके लक्षणों को दबा देते हैं और उनके मूल कारणों को दूर करने की कोशिश नहीं करते। यदि हम छोटे-छोटे रोगों को दबायें नहीं और उन्हें अपना कार्य करने दें, तो बड़े या जीर्ण रोग होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

कहने का तात्पर्य है कि तीव्र रोगों को दवाइयाँ खाकर दबाने और विकारों या विजातीय द्रव्यों को शरीर से बाहर न निकलने देने पर ही तमाम तरह के जीर्ण रोग पैदा होते हैं। यदि हम अपने मल निष्कासक अंगों पर अनावश्यक बोझ न डालें और उनके कार्यों में सहायता करें, तो हमारा शरीर सरलता से रोगमुक्त हो सकता है और सदा स्वस्थ बना रह सकता है। यही प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का मूल आधार है।
*प्राकृतिक चिकित्सा - ९*

*स्वास्थ्य के लिए भोजन*

भोजन जीवन के लिए एक अति आवश्यक वस्तु है। भोजन से हमारे शरीर को पोषण प्राप्त होता है और उसमें होेने वाली कमियों की भी पूर्ति होती है। भोजन के अभाव में शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है और जीवन संकट में पड़ जाता है।

भोजन का स्वास्थ्य से बहुत गहरा सम्बंध है। भोजन करना एक अनिवार्य कार्य है। इसी प्रकार हम अन्य कई अनिवार्य कार्य करते हैं, जैसे साँस लेना, मल त्यागना, मूत्र त्यागना, स्नान करना, नींद लेना आदि। इन कार्यों में हमें कोई आनन्द नहीं आता, परन्तु भोजन करने में हमें आनन्द आता है। इससे भोजन करना हमें बोझ नहीं लगता, बल्कि आनन्ददायक अनुभव होता है। लेकिन अधिकांश लोग स्वाद के वशीभूत होकर ऐसी वस्तुएँ खाते-पीते हैं, जो शरीर के लिए बिल्कुल भी आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक ही सिद्ध होती हैं। भोजन का उद्देश्य शरीर को क्रियाशील बनाए रखना होना चाहिए। परन्तु अधिकांश लोग जीने के लिए नहीं खाते, बल्कि खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग ही प्रायः बीमार रहते हैं।

हमारे अस्वस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण गलत खानपान होता है। यदि हम अपने भोजन को स्वास्थ्य की दृष्टि से संतुलित करें और हानिकारक वस्तुओं का सेवन न करें, तो बीमार होने का कोई कारण नहीं रहेगा। हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने पर ही रोग उत्पन्न होते हैं और उनका सेवन बन्द कर देने पर रोगों से छुटकारा पाना सरल हो जाता है। कई प्राकृतिक तथा अन्य प्रकार के चिकित्सक तो केवल भोजन में सुधार और परिवर्तन करके ही सफलतापूर्वक अधिकांश रोगों की चिकित्सा करते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में तो खान-पान का सबसे अधिक महत्व है। इसमें किसी दवा का सेवन नहीं किया जाता, बल्कि भोजन को ही दवा के रूप में ग्रहण किया जाता है और इतने से ही व्यक्ति स्वास्थ्य के मार्ग पर चल पड़ता है।

एक कहानी में स्वास्थ्य की कुंजी इस प्रकार दी गई है- *हित भुक्, ऋत भुक्, मित भुक्* अर्थात् ”हितकारी भोजन करना, ऋतु अनुकूल तथा न्यायपूर्वक प्राप्त किया हुआ भोजन करना और अल्प मात्रा में भोजन करना“। ये तीनों ही शर्तें बराबर महत्व की हैं। यदि हम स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का सेवन करेंगे, तो अवश्य ही हानि उठायेंगे। इसलिए भोजन में स्वास्थ्य के लिए हितकारी वस्तुएँ ही होनी चाहिए। अब यदि वस्तु हितकारी है, परन्तु ऋतु के अनुकूल नहीं है, तो भी हानिकारक होगी। इसलिए भोजन ऋतु के अनुकूल होना चाहिए। हितकारी और ऋतु अनुकूल भोजन भी यदि अधिक मात्रा में किया जाय, तो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, क्योंकि उसके पाचन में शरीर असमर्थ और कमजोर हो जाता है। इसलिए हितकारी और ऋतु अनुकूल वस्तुएँ भी अल्प मात्रा में ही सेवन करनी चाहिए, तभी हम स्वस्थ रह सकेंगे।

यह भी महत्वपूर्ण है कि हम जो भी खायें, वह न्यायपूर्वक प्राप्त किया हुआ होना चाहिए। यदि कोई खाद्य पदार्थ हमने चोरी या बेईमानी से, किसी को सताकर, दुःख पहुँचाकर, छीना-झपटी से या हिंसा करके प्राप्त किया हो, तो वह चाहे कितना भी स्वादिष्ट या पौष्टिक क्यों न हो, किन्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं हो सकता। देर-सवेर उसका दुष्प्रभाव हमारे तन-मन पर अवश्य पडे़गा। कहावत भी है कि ‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन’। जो लोग बिना परिश्रम किये और झूठ या बेईमानी या भ्रष्टाचार से धन एकत्र कर लेते हैं, वे चाहे कितना भी अच्छा भोजन कर लें, लेकिन सदा बीमार ही रहेंगे और अन्यायपूर्वक कमाया हुआ उनका धन बीमारियों के इलाज में ही व्यय होगा। *बेईमानी के धन से सुख और स्वास्थ्य की आशा करना मूर्खता है।*

हम जो भी खाते-पीते हैं, उसको पचाने में हमारे शरीर को परिश्रम करना पड़ता है। इसलिए हमें ऐसी वस्तुएँ ही खानी चाहिए, जो सुपाच्य हों और जिनको पचाने में शरीर की शक्ति का अधिक व्यय न हो। अत्यधिक तले-भुने और मसालेदार भोजन को पचाने में हमारी बहुत शक्ति खर्च हो जाती है, इसलिए जहाँ तक सम्भव हो ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। माँसाहार और अंडाहार भी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हैं। इसलिए भले ही हमें भूखा रहना पड़े, इनका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।

बहुत से लोग अंडा और दूध को एक ही श्रेणी में रखते हैं, क्योंकि दोनों ही वस्तुएँ पशुओं से प्राप्त की जाती हैं। परन्तु यह बहुत बड़ी भूल है, क्योंकि दूध जहाँ प्रकृति माता का बच्चों के लिए तरल भोजनरूपी उपहार है, वहीं अंडा एक भ्रूण होता है। भ्रूण कदापि सेवनीय नहीं हो सकता, भले ही उसमें कितने भी पौष्टिक तत्व क्यों न हों। जहाँ दूध और उससे बने पदार्थ घी, दही, मठा आदि स्वास्थ्य के लिए अमृत समान होते हैं, वहीं अंडा और उससे बनी वस्तुएँ जहर के समान हैं। इसलिए इनसे बचना चाहिए।

संक्षेप में, हमारे भोजन का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य का निर्माण करना और रोगों से बचे रहना होना चाहिए।
*प्राकृतिक चिकित्सा - १०*

*भोजन कितना करें और कैसे?*

इस लेखमाला की पिछली कड़ी में हमने विस्तार से इसकी चर्चा की है कि हमें भोजन में केवल वे ही वस्तुएँ लेनी चाहिए जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हों और रोगों से बचने में सहायक हों। यह प्रश्न फिर भी रह जाता है कि भोजन कितना किया जाये, क्योंकि यदि लाभदायक वस्तु भी आवश्यकता से अधिक मात्रा में खायी जाये, तो वह अन्तत: हानिकारक ही सिद्ध होती है।

इसलिए हम जो भी खायें वह अल्प मात्रा में ही खायें। परन्तु अधिकतर होता यह है कि स्वाद के वशीभूत होकर हम आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ खा जाते हैं, जिन्हें हमारी पाचन प्रणाली अच्छी तरह पचा नहीं पाती। विवाह-शादियों और पार्टियों में प्रायः ऐसा देखा जाता है। एक तो वहाँ पचने में भारी वस्तुओं की भरमार होती है, दूसरे उन्हें भी लोग ठूँस-ठूँसकर खा लेते हैं। इससे पेट में विकार उत्पन्न होते हैं और हम चूरन-चटनी के सहारे उस भोजन को पचाने का प्रयास करते हैं।

कई विद्वानों ने सही कहा है कि हम जो खाते हैं, उसके एक तिहाई से हमारा पेट भरता है और दो तिहाई से डाक्टरों का। इसका तात्पर्य यही है कि हमारे जीवन के लिए अल्प मात्रा में भोजन ही पर्याप्त है और उससे अधिक खाने पर विकार ही उत्पन्न होते हैं। उनके इलाज में धन व्यय होता है, जिससे डाक्टरों को अच्छी आमदनी होती है। इसलिए यह बात गाँठ बाँध लीजिए कि कोई वस्तु चाहे कितनी भी स्वादिष्ट क्यों न हो और भले ही मुफ्त क्यों न मिली हो, उतनी ही मात्रा में खानी चाहिए, जितनी हम सरलता से पचा सकें। अधिक खाना ही बीमारियों का सबसे बड़ा कारण है। किसी ने सही कहा है कि *खाने के अभाव से उतने लोग नहीं मरते, जितने ज्यादा खाने से मरते हैं।*

भोजन के सम्बंध में एक अति महत्वपूर्ण बात यह है कि हम जो भी खा रहे हों उसे खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। अधिक चबाने से उसमें कई ऐसे रस मिल जाते हैं, जो पाचन में बहुत सहायक होते हैं। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक कहा है कि प्रकृति ने हमारे मुँह में बत्तीस दाँत इसलिए दिये हैं कि हम प्रत्येक कौर को 32 बार चबाकर खायें। अच्छी तरह चबाये बिना भोजन को निगल जाने पर उसे पचाने का कार्य आँतों को करना पड़ता है, जिससे हमारी पाचन शक्ति धीरे-धीरे कमजोर हो जाती है और मलनिष्कासक अंग भी ठीक प्रकार से कार्य नहीं करते। इससे कब्ज पैदा होता है और उससे तमाम बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए दाँतों का कार्य आँतों से लेना गलत है।

खूब चबाकर खाने से भोजन की मात्रा पर अपने आप नियंत्रण हो जाता है, क्योंकि अच्छी तरह चबाने से कम भोजन में ही पेट भर जाता है। अच्छी तरह चबाकर खायी गयी एक रोटी जल्दी-जल्दी खायी गयी चार रोटियों से अधिक पौष्टिक होती है। इसलिए हमें खूब चबाकर खाना चाहिए और भूख से थोड़ा कम ही खाना चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि भोजन कितनी बार करना चाहिए। कई लोग दिन में कई बार कुछ-न-कुछ खाते ही रहते हैं। यह भी बीमारियों को निमंत्रण देने के समान है। सामान्यतया हमें दिन में केवल दो बार भोजन करना चाहिए। सामान्य रूप से मैं नाश्ता करने के पक्ष में नहीं हूँ। मेरा विचार यह है कि दोपहर भोजन से पूर्व जहाँ तक सम्भव हो, कोई ठोस वस्तु नहीं लेनी चाहिए। यदि नाश्ता करना आवश्यक ही हो, तो हल्का और सुपाच्य तरल आहार लेना चाहिए, जैसे दूध, मठा, दलिया, अंकुरित अन्न, फल आदि। कहावत है कि ‘एक बार खाये योगी, दो बार खाये भोगी और तीन बार खाये रोगी’। इसका तात्पर्य भी यही है कि दो बार से अधिक भोजन करने वाला प्रायः रोगी बना रहता है।

इसलिए जहाँ तक सम्भव हो, हमें केवल दो बार ही पूर्ण आहार करना चाहिए। दो भोजनों के बीच में कम से कम 6 घंटों का अन्तर अवश्य होना चाहिए। कभी कभी हमें भोजन करने के तीन-चार घंटे बाद ही भूख लग आती है। वह कच्ची भूख होती है। उस समय कुछ भी खाना उचित नहीं है। सबसे अच्छा यह रहेगा कि एक गिलास जल या किसी फल का जूस पी लिया जाये। इस सम्बंध में सबसे सुनहरा नियम यह है कि जब तक कड़ी भूख न लगे, तब तक कुछ भी मत खाइये। बिना भूख के खाना या कम भूख में खाना मुसीबत बुलाने के समान है।

रात्रि का भोजन सोने से कम से कम दो-तीन घंटे पूर्व अवश्य कर लेना चाहिए। लोग इस नियम को सबसे अधिक तोड़ते हैं और फिर उसका दुष्परिणाम भोगते हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि लोग रात्रि में 10-11 बजे भोजन करते हैं और फिर उसके तुरन्त बाद सो जाते हैं। इससे भोजन को पचने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता और वह रातभर बिना पचे पेट में पड़ा रहता है। इससे बहुत प्रकार की बीमारियाँ पैदा होती हैं और लोगों के पेट भी लटक जाते हैं। नव विवाहित युगलों में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक पायी जाती है, इसलिए उनके पेट बहुत जल्दी ही लटकने लगते हैं। लटके हुए पेट स्वास्थ्य और सौन्दर्य के शत्रु होते हैं। ऐसे लोगों की आयु भी अल्प होती है और वे प्रायः तरह-तरह की बीमारियों से पीड़ित रहते हैं।

इसलिए यदि आप पेट को बाहर निकलने से बचाना चाहते हैं, तो रात्रि का भोजन 7-8 बजे तक अवश्य कर लें और यदि कभी देर हो जाये, तो कम मात्रा में भोजन करें या बिल्कुल न करें। रात्रि को देर से भोजन करने वालों को नाश्ता भूलकर भी नहीं करना चाहिए और दूसरे दिन दोपहर 12 बजे से पूर्व जल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खाना-पीना चाहिए। इससे वे बहुत से दुष्प्रभावों से बचे रह सकते हैं। जिनका पेट पहले से लटका हुआ है, वे भी इन नियमों का पालन करके अर्थात् नाश्ता छोड़कर और थोड़ा सा शारीरिक व्यायाम करके उससे कुछ महीनों में ही छुटकारा पा सकते हैं।



*प्राकृतिक चिकित्सा - ११*

*भोजन कितना करें एवं कैसे (जारी)*

इस लेखमाला की पिछली कड़ी १० में हमने इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की थी। कुछ पाठक मित्रों ने हमसे इस विषय पर और अधिक गहन चर्चा का अनुरोध किया है। इसलिए हम इस विषय पर कुछ अन्य विचार भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

भोजन ग्रहण करने का समय हमें स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाता है। भोजन करने के निर्धारित समय का पालन जहाँ तक सम्भव हो अवश्य करना चाहिए। प्राचीन आयुर्वेदाचार्य एवं शोधकर्ता महर्षि वागभट्ट ने लगभग 3 हजार वर्ष पहले ‘भोजन कब करें’ विषय पर बहुत शोधकार्य किया था। वे लिखते हैं कि दो वर्ष तक इस विषय पर गहन शोध के बाद वे इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि भोजन का समय सदैव निर्धारित होना चाहिए।

भोजन करने का समय हमारे शरीर की जठराग्नि (भोजन पचाने की आग) के अधिकतम होने के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। यह सूर्योदय के ढाई घंटे बाद तक प्रबल होती है और सूर्यास्त के बाद कम हो जाती है। हमारी परम्पराओं, योग तथा पक्षियों की भोजन आदतों के अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि प्राणियों की पाचनशक्ति धूप के समय प्रबल रहती है।

अतः आधुनिक जीवनशैली में बदले परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हम भोजन का समय निम्न प्रकार निर्धारित कर सकते हैं- नाश्ता प्रातःकाल 8 बजे से 9 बजे तक, दोपहर का भोजन दोपहर बाद 1 बजे से 2 बजे तक और रात्रि भोजन का आदर्श समय सायंकाल 6 बजे से 7 बजे तक है। आवश्यकता के अनुसार इसमें अधिकतम 30 मिनट तक छूट ली जा सकती है।
हमें अपने दैनिक भोजन की तीन-चौथाई मात्रा नाश्ते तथा दोपहर के भोजन में ग्रहण कर लेनी चाहिए और केवल एक-चौथाई मात्रा रात्रि भोजन में रखनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम सारांश में कह सकते हैं कि मात्रा और पोषण तत्वों की गुणवत्ता के अनुसार नाश्ता किसी राजा की तरह करना चाहिए, दोपहर का भोजन किसी युवराज की तरह और रात्रि भोजन किसी फकीर या भिखारी की तरह करना चाहिए। किसी भी स्थिति में कहीं भी, कभी भी, और भूख के बिना खाने को अपनी आदत नहीं बनाना चाहिए।

स्वस्थ जीवन जीने के लिए भोजन कैसे करें यह भी अति महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद के तीन प्रमुख ग्रंथों में से एक ’सुश्रुत संहिता’ के अनुसार- ”किसी उठे हुए स्थान पर सुविधापूर्वक बैठकर, समान स्थिति में रहते हुए और भोजन पर ध्यान केन्द्रित करके उचित समय पर (अर्थात् जब जठराग्नि प्रबल हो और वास्तविक भूख लग रही हो), उचित मात्रा में (अपनी पाचन शक्ति के अनुसार) भोजन करना चाहिए।“

इसी प्रकार मानसिक कार्य करने वालों को सुखासन में और शारीरिक श्रम करने वालों को कागासन में (उकड़ूँ) बैठकर भोजन ग्रहण करना चाहिए। भोजन की मेज-कुर्सी की अवधारणा यूरोपीय है, क्योंकि वहाँ की जलवायु ठंडी है और इसका हमारी परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं बैठता है। भारतीय परिस्थितियों में भोजन किसी आसन पर बैठकर किया जाता है और भोजन को किसी उठे हुए स्थान जैसे चैकी पर रखा जाता है। यदि किसी को चैकी-आसन के प्रयोग में असुविधा हो, तो वे कुर्सी पर सुखासन में (पालथी मारकर) बैठ सकते हैं और भोजन को डाइनिंग टेबल पर रख सकते हैं।

भोजन को छुरी-काँटे और चम्मच के बिना हाथ से करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर में पाँचों तत्वों (पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि) का संतुलन बना रहता है, जिसका परिणाम होता है- स्वास्थ्य। भोजन प्रसन्नतापूर्वक मौन रहकर करना चाहिए ताकि पर्याप्त मात्रा में लार का निर्माण हो। उल्लेखनीय है कि लार आयु प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है और पाचन में सहायता करती है। इसका निर्माण प्रत्येक कौर को कम से कम 32 बार अर्थात् अच्छी तरह चबाने से पर्याप्त मात्रा में होता है। चबाते समय अपने मुख को बन्द रखें और आवाज न करें। हर बार छोटे-छोटे कौर तोड़कर खाइए ताकि आप सरलता से मसाँस ले सकें और कौर को बिना कठिनाई के चबा सकें। शांत रहना और इस पर ध्यान देना भी सहायक होता है कि आप क्या खा रहे हैं, बजाय सबकुछ निगल जाने के। खाते समय बात करना, टीवी देखना या पढ़ना भी उचित नहीं है।

महर्षि वागभट्ट ने सही कहा था- ”जिस भोजन को बनाने में सूर्य के प्रकाश एवं पवन का स्पर्श न हुआ हो, वह विष के समान है।“ इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि भोजन बनाने का कार्य इन दो मौलिक और महत्वपूर्ण तत्वों हवा और धूप की उपस्थिति में ही किया जाये।

अगली कड़ियों में हम तरल पदार्थों विशेषतया जल ग्रहण करने का एवं भोजन न करने (उपवास) का स्वास्थ्य से सम्बन्ध
पर विचार करेंगे।


*प्राकृतिक चिकित्सा - १२*

*जल कितना पियें और कैसे*

भोजन के साथ-साथ जल की चर्चा करना अति आवश्यक है। प्रायः लोग पानी को पीने लायक वस्तु नहीं मानते और बहुत प्यास लगने पर ही पानी पीते हैं। इसके स्थान पर वे तरह-तरह की तरल वस्तुएँ चाय, काॅफी, कोल्ड ड्रिंक आदि पीते रहते हैं। ऐसे लोग बहुत गलतियाँ कर रहे हैं, जिनका कुपरिणाम उन्हें आगे चलकर भुगतना पड़ता है, क्योंकि ये वस्तुएँ जल का स्थानापन्न नहीं हैं, बल्कि जल पीने की आवश्यकता और अधिक बढ़ा देती हैं।

जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता, बल्कि हमारा स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए भी अनिवार्य है। जिस प्रकार हम स्नान द्वारा अपने शरीर की बाहर से सफाई करते हैं, उसी प्रकार शरीर की अन्दर से सफाई के लिए जल पिया जाता है। यह हमारे भोजन और रक्त को छानकर उनसे हानिकारक पदार्थों को दूर करने में बहुत सहायक होता है। वे पदार्थ मूत्र द्वारा हमारे शरीर से बाहर निकल जाते हैं।

वैसे भी हमारे शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल ही है। उसका बहुत सा भाग मूत्र और पसीने के रूप में शरीर से निकलता रहता है, जिसकी पूर्ति होना आवश्यक है। जल के अभाव में हमारे शरीर की बहुत सी क्रियायें मन्द हो जाती हैं या रुक जाती हैं, जो जीवन के लिए हानिकारक होता है। हम भोजन के बिना महीनों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन पानी के बिना कुछ दिन भी जीवित रहना लगभग असम्भव है। इसलिए हमें हर मौसम में हर जगह नियमित अन्तराल पर जल पीने का ध्यान रखना चाहिए।

यह बात हमेशा याद रखें कि पीने का जल अधिक ठंडा या गर्म न हो। जाड़ों में कभी कभी हम गुनगुना जल पी सकते हैं, लेकिन अन्य सभी दिनों में वह साधारण शीतल होना चाहिए। फ्रिज आदि का अधिक ठंडा जल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। इसलिए यथासम्भव इससे बचना चाहिए। यदि विवशता में फ्रिज का जल पीना ही पड़े तो उसमें बराबर का साधारण जल मिलाकर उसका तापमान बढ़ा लेना चाहिए। पीने के लिए जल हमेशा साधारण ठंडा होना चाहिए। अति शीतल और अति गर्म वस्तुएँ खाना या पीना पाचन शक्ति के लिए हानिकारक होता है।

पीने के पानी की मात्रा भी बहुत महत्वपूर्ण है। किसी स्वस्थ वयस्क व्यक्ति को ढाई-तीन लीटर जल प्रतिदिन अवश्य पी लेना चाहिए। इसका एक सुनहरा नियम यह हो सकता है कि हम हर घंटे या सवा घंटे पर एक गिलास (लगभग एक पाव) पानी पियें, जैसे 6 बजे, 7 या सवा 7 बजे, 8 या साढ़े 8 बजे आदि। इस प्रकार यदि आप दिन में 16 घंटे जगे रहते हैं, तो दिनभर में 12 गिलास या 3 लीटर पानी हो जायेगा। यह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। इसको शब्दों में नहीं बताया जा सकता। इसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है।

जल पीने के साथ नियमित मूत्र विसर्जन करना भी अनिवार्य है। जितनी बार आप जल पीते हैं, यदि उतनी बार मूत्र विसर्जन के लिए जाना पड़े तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है। जल पीने के लगभग 45 मिनट से 1 घंटे बार मूत्र के दवाब का अनुभव होता है। यदि मूत्र विसर्जन की सुविधा हो, तो उसी समय मूत्र विसर्जन कर आना चाहिए। मूत्र को अधिक देर तक रोकना बहुत हानिकारक होता है। एक बात और ध्यान रखें कि मूत्र विसर्जन स्वाभाविक रूप से होना चाहिए, उसके लिए जोर बिल्कुल न लगायें, क्योंकि जोर लगाकर मूत्र त्यागने से मूत्राशय की सूजन, जलन आदि समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। स्वाभाविक रूप से मूत्र विसर्जन करने पर ये समस्याएँ नहीं होतीं और यदि पहले से हैं तो ठीक हो जाती हैं।

बहुत से डाॅक्टर अधिक जल पीने को हानिकारक बताते हैं। वे प्रतिदिन दो-ढाई लीटर से अधिक जल पीने से मना करते हैं। यह गलत है। मेरा अनुभव है कि यदि आप नियमित अंतराल पर जल पीते हैं और समय पर मूत्र विसर्जन कर आते हैं, तो प्रतिदिन चार लीटर तक जल पीना भी हानिकारक नहीं है, बल्कि बहुत लाभदायक होता है। कई बार शरीर की सफाई के लिए प्रतिदिन चार लीटर जल पीना आवश्यक होता है। इससे अधिक जल पीने की सलाह मैं किसी को नहीं देता।

एक बात ध्यान रखें कि एक बार में सामान्यतया एक गिलास जल ही पीना चाहिए। यदि बहुत अधिक प्यास लगी है, तो डेढ़ गिलास (लगभग 400 मिलीलीटर) तक जल पी सकते हैं, परन्तु इससे अधिक नहीं। यदि इससे प्यास नहीं बुझती, तो आधा-पौन घंटा बाद फिर जल पी सकते हैं। कई लोग सुबह उठते ही एक साथ चार-पाँच गिलास जल पीने की सलाह देते हैं। यह भी हानिकारक होता है। मेरे विचार से सुबह पहली बार अधिकतम दो गिलास जल पी सकते हैं, उसके बाद हमेशा एक-एक गिलास ही पीना चाहिए।

ऐलोपैथिक डाॅक्टर गुर्दे के रोगियों को जल पीने से मना करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार जल पीने से गुर्दों का काम बढ़ जाता है। यह विचार बहुत भयंकर है, क्योंकि ऐसा करने से गुर्दे धीरे-धीरे निष्क्रिय होकर पूरी तरह खराब हो जाते हैं। फिर उनके पास डायलाइसिस कराने और आगे चलकर गुर्दा बदलवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। मेरे विचार से खराब गुर्दे के रोगियों को प्रतिदिन दो से ढाई लीटर जल थोड़ा थोड़ा करके अवश्य पीना चाहिए, ताकि गुर्दे सक्रिय बने रहें। मैंने सही मात्रा में इस प्रकार जल पिलाकर गुर्दे के रोगियों को स्वस्थ किया है, जिनको पहले डायलाइसिस कराना पड़ता था।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भोजन के तुरन्त पहले और तुरन्त बाद जल पीना हानिकारक होता है। खाने के ठीक पहले पानी पीने से भूख कम होती है और ठीक बाद पीने से पाचन शक्ति खराब होती है और गैस बनती है। इसके बजाय भोजन के एक घंटे पहले और एक-डेढ़ घंटे बाद इच्छानुसार जल पीना चाहिए। खाने के बीच में प्यास लगने पर एक-दो घूँट पानी पिया जा सकता है। पानी पीने के सम्बंध में सबसे सुनहरा नियम यह है कि जब भी प्यास लगे पानी अवश्य पीना चाहिए। इसके अलावा कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें जल पीना वर्जित किया गया है। फल खाने के बाद, कोई अन्य तरल पदार्थ पीने के बाद और धूप में से आने पर तुरन्त जल नहीं पीना चाहिए। इनके आधा घंटे बाद जल पिया जा सकता है।

भोजन और जल के सम्बंध में एक सुन्दर दोहा प्रचलित है, जिसमें सुन्दर स्वास्थ्य का रहस्य छिपा हुआ है। यह दोहा निम्न प्रकार है-
भोजन को आधा करो, दुगुना पानी पीव।
चैगुन श्रम अठगुन हँसी, वर्ष सवा सौ जीव।।

-- *डॉ विजय कुमार सिंघल*
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
मो. 9919997596
कार्तिक कृ 8, सं 2076 वि (21 अक्तूबर, 2019)

No comments:

Post a Comment