Friday, September 21, 2018

Inspirational Stories हम बदलेंगे,युग बदलेगा

प्रेरक कहानी

" अच्छे अच्छे महलों मे भी एक दिन कबूतर अपना घोंसला बना लेते है ...


               सेठ घनश्याम के दो पुत्रों में जायदाद और ज़मीन का बँटवारा चल रहा था और एक चार पट्टी के कमरे को लेकर विवाद गहराता जा रहा था , एकदिन दोनो भाई मरने मारने पर उतारू हो चले , तो पिता जी बहुत जोर से हँसे। पिताजी को हँसता देखकर दोनो भाई  लड़ाई को भूल गये,  और पिताजी से हँसी का कारण पुछा।
               तो पिताजी ने कहा-- इस छोटे से ज़मीन के टुकडे के लिये इतना लड़ रहे हो छोड़ो इसे आओ मेरे साथ एक अनमोल खजाना बताता हूँ मैं तुम्हे !

              पिता घनश्याम जी और दोनो पुत्र पवन और मदन उनके साथ रवाना हुये पिताजी ने कहा देखो यदि तुम आपस मे लड़े तो फिर मैं तुम्हे उस खजाने तक नही लेकर जाऊँगा और बीच रास्ते से ही लौटकर आ जाऊँगा !
                  अब दोनो पुत्रों ने खजाने के चक्कर मे एक समझौता किया की चाहे कुछ भी हो जाये पर हम लड़ेंगे नही प्रेम से यात्रा पे चलेंगे !

                 गाँव जाने के लिये एक बस मिली पर  सीट दो की मिली, और  वो तीन थे, अब पिताजी के साथ थोड़ी देर पवन बैठे तो थोड़ी देर मदन ऐसे चलते-चलते लगभग दस घण्टे का सफर तय किया फिर गाँव आया।
                  घनश्याम दोनो पुत्रों को लेकर एक बहुत बड़ी हवेली पर गये हवेली चारों तरफ से सुनसान थी। घनश्याम ने जब देखा की हवेली मे जगह जगह कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है, तो घनश्याम वहीं पर बैठकर रोने लगे।
               दोनो पुत्रों ने पुछा क्या हुआ पिताजी आप रो क्यों रहे है ?
     तो रोते हुये उस वृद्ध पिता ने कहा जरा ध्यान से देखो इस घर को, जरा याद करो वो बचपन जो तुमने यहाँ बिताया था , तुम्हे याद है पुत्र इस हवेली के लिये मैं ने अपने भाई से बहुत लड़ाई की थी, सो ये हवेली तो मुझे मिल गई पर मैंने उस भाई को हमेशा के लिये खो दिया , क्योंकि वो दूर देश में जाकर बस गया और फिर वक्त्त बदला और एक दिन हमें भी ये हवेली छोड़कर जाना पड़ा !
         अच्छा तुम ये बताओ बेटा की जिस सीट पर हम बैठकर आये थे, क्या वो बस की सीट हमें मिल जायेगी ? और यदि मिल भी जाये तो क्या वो सीट हमेशा-हमेशा के लिये हमारी हो सकती है ? मतलब की उस सीट पर हमारे सिवा कोई न बैठे। तो दोनो पुत्रों ने एक साथ कहा की ऐसे कैसे हो सकता है , बस की यात्रा तो चलती रहती है और उस सीट पर सवारियाँ बदलती रहती है। पहले कोई और बैठा था , आज कोई और बैठा होगा और पता नही कल कोई और बैठेगा। और वैसे भी उस सीट में क्या धरा है जो थोड़ी सी देर के लिये हमारी है !
                 पिताजी फिर हँसे फिर रोये और फिर वो बोले देखो यही तो मैं तुम्हे समझा रहा हूँ ,कि जो थोड़ी देर के लिये तुम्हारा है , तुमसे पहले उसका मालिक कोई और था बस थोड़ी सी देर के लिये तुम हो और थोड़ी देर बाद कोई और हो जायेगा।
                बस बेटा एक बात ध्यान रखना की इस थोड़ी सी देर के लिये कही अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, यदि कोई प्रलोभन आये तो इस घर की इस स्थिति को देख लेना की अच्छे अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोसला बना लेते है। बस बेटा मुझे यही कहना था --कि  बस की उस सीट को याद कर लेना जिसकी रोज उसकी सवारियां बदलती रहती है उस सीट के खातिर अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना जिस तरह से बस की यात्रा में तालमेल बिठाया था बस वैसे ही जीवन की यात्रा मे भी तालमेल बिठा लेना !
           दोनो पुत्र पिताजी का अभिप्राय समझ गये, और पिता के चरणों में गिरकर रोने लगे !

शिक्षा :-

     मित्रों, जो कुछ भी ऐश्वर्य - सम्पदा हमारे पास है वो सबकुछ बस थोड़ी देर के लिये ही है , थोड़ी-थोड़ी देर मे यात्री भी बदल जाते है और मालिक भी। रिश्तें बड़े अनमोल होते है छोटे से ऐश्वर्य या सम्पदा के चक्कर मे कहीं किसी अनमोल रिश्तें को न खो देना ..

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*आपसे मेरा अनुरोध है कि, मराठी भाषा से हिन्दीकरण किए गए इस छोटे से लेख को अवश्य पढ़ें...*
🙏 *शरद कुमार दुबे ( गोंदिया, महाराष्ट्र )*

पापा के पाँव में चोट लगी थी, कुछ दिनों से वे वैसे ही लंगडाकर चल रहे थे।
मैं भी छोटा था और ऐन टाइम पर हमारे घर के गणेश विसर्जन के लिए किसी गाड़ी की व्यवस्था भी न हो सकी।
पापा ने अचानक ही पहली मंजिल पर रहने वाले जावेद भाई को आवाज लगा दी : *" ओ जावेद भाई, गणेश विसर्जन के लिए तालाब तक चलते हो क्या ? "*
मम्मी तुरंत विरोध स्वरूप बड़बड़ाने लगीं : *" उनसे पूछने की क्या जरूरत है ? "*

छुट्टी का दिन था और जावेद भाई घर पर ही थे। तुरंत दौड़े आए और बोले : *" अरे, गणपती बप्पा को गाड़ी में क्या, आप हुक्म करो तो अपने कन्धे पर लेकर जा सकता हूँ। "*
अपनी टेम्पो की चाबी वे साथ ले आए थे।
गणपती विसर्जन कर जब वापस आए तो पापा ने लाख कहा मगर जावेद भाई ने टेम्पो का भाड़ा नहीं लिया। लेकिन मम्मी ने बहुत आग्रह कर उन्हें घर में बने हुए पकवान और मोदक आदि खाने के लिए राजी कर लिया। जिसे जावेद भाई ने प्रेमपूर्वक स्वीकार किया, कुछ खाया कुछ घर ले गए।

तब से हर साल का नियम सा बन गया, गणपती हमारे घर बैठते और विसर्जन के दिन जावेद भाई अपना टेम्पो लिए तैयार रहते।

हमने चाल छोड़ दी, बस्ती बदल गई, हमारा घर बदल गया, जावेद भाई की भी गाड़ियाँ बदलीं मगर उन्होंने गणेश विसर्जन का सदा ही मान रखा। हम लोगों ने भी कभी किसी और को नहीं कहा।
जावेद भाई कहीं भी होते लेकिन विसर्जन के दिन समय से एक घंटे पहले अपनी गाड़ी सहित आरती के वक्त हाजिर हो जाते।
पापा, मम्मी को चिढ़ाने के लिए कहते : *" तुम्हारे स्वादिष्ट मोदकों के लिए समय पर आ जाते हैं भाईजान। "*
जावेद भाई कहते : *" आपका बप्पा मुझे बरकत देता है भाभी जी, उनके विसर्जन के लिए मैं समय पर न आऊँ, ऐंसा कभी हो ही नहीं सकता। "*

26 सालों तक ये सिलसिला अनवरत चला।
तीन साल पहले पापा का स्वर्गवास हो गया लेकिन जावेद भाई ने गणपती विसर्जन के समय की अपनी परंपरा जारी रखी।
अब बस यही होता था कि विसर्जन से आने के पश्चात जावेद भाई पकवानों का भोजन नहीं करते, बस मोदक लेकर चले जाया करते।
आज भी जावेद भाई से भाड़ा पूछने की मेरी मजाल नहीं होती थी।

इस साल मार्च के महीने में जावेद भाई का इंतकाल हो गया।

आज विसर्जन का दिन है, क्या करूँ कुछ सूझ नहीं रहा।
आज मेरे खुद के पास गाड़ी है लेकिन मन में कुछ खटकता सा है, इतने सालों में हमारे बप्पा बिना जावेद भाई की गाड़ी के कभी गए ही नहीं। ऐंसा लगता है कि, विसर्जन किया ही न जाए।

मम्मी ने पुकारा : *" आओ बेटा, आरती कर लो। "*
आरती के बाद अचानक एक अपरिचित को अपने घर के द्वार पर देखा।
सबको मोदक बाँटती मम्मी ने उसे भी प्रसाद स्वरूप मोदक दिया जिसे उसने बड़ी श्रद्धा से अपनी हथेली पर लिया।
फिर वो मम्मी से बड़े आदर से बोला : *" गणपती बप्पा के विसर्जन के लिए गाड़ी लाया हूँ। मैं जावेद भाई का बड़ा बेटा हूँ। "*
अब्बा ने कहा था कि, *" कुछ भी हो जाए लेकिन आपके गणपती, विसर्जन के लिए हमारी ही गाड़ी में जाने चाहिए। परंपरा के साथ हमारा मान भी है बेटा। "*
*" इसीलिए आया हूँ। "*

मम्मी की आँखे छलक उठीं। उन्होंने एक और मोदक उसके हाथ पर रखा *जो कदाचित जावेद भाई के लिए था....*

*फाइनली एक बात तो तय है कि, देव, देवता या भगवान चाहे किसी भी धर्म के हों लेकिन उत्सव जो है वो, रिश्तों का होता है....रिश्तों के भीतर बसती इंसानियत का होता है....*

*बस इतना ही...!!*

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 *ॐ सुप्रभात*

*सन्यासी की जड़ी-बूटी !*

बहुत समय पहले की बात है, एक वृद्ध सन्यासी हिमालय की पहाड़ियों में कहीं रहता था। वह बड़ा ज्ञानी था और उसकी बुद्धिमत्ता की ख्याति दूर -दूर तक फैली थी। एक दिन एक औरत उसके पास पहुंची और अपना दुखड़ा रोने लगी,

” बाबा, मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता था, लेकिन वह जबसे युद्ध से लौटा है ठीक से बात तक नहीं करता।”

” युद्ध लोगों के साथ ऐसा ही करता है।”,सन्यासी बोला।

” लोग कहते हैं कि आपकी दी हुई जड़ी-बूटी इंसान में फिर से प्रेम उत्पन्न कर सकती है,कृपया आप मुझे वो जड़ी-बूटी दे दें।”, महिला ने विनती की।

सन्यासी ने कुछ सोचा और फिर बोला ,” देवी मैं तुम्हे वह जड़ी-बूटी ज़रूर दे देता लेकिन उसे बनाने के लिए एक ऐसी चीज चाहिए जो मेरे पास नहीं है।”

” आपको क्या चाहिए मुझे बताइए मैं लेकर आउंगी।”, महिला बोली।

” मुझे बाघ की मूंछ का एक बाल चाहिए।”, सन्यासी बोला।

*अगले ही दिन महिला बाघ की तलाश में जंगल में निकल पड़ी, बहुत खोजने के बाद उसे नदी के किनारे एक बाघ दिखा, बाघ उसे देखते ही दहाड़ा, महिला सहम गयी और तेजी से वापस चली गयी।*

*अगले कुछ दिनों तक यही हुआ,महिला हिम्मत कर के उस बाघ के पास पहुँचती और डर कर वापस चली जाती। महीना बीतते-बीतते बाघ को महिला की मौजूदगी की आदत पड़ गयी, और अब वह उसे देख कर सामान्य ही रहता। अब तो महिला बाघ के लिए मांस भी लाने लगी और बाघ बड़े चाव से उसे खाता। उनकी दोस्ती बढ़ने लगी और अब महिला बाघ को थपथपाने भी लगी। और देखते देखते एक दिन वो भी आ गया जब उसने हिम्मत दिखाते हुए बाघ की मूंछ का एक बाल भी निकाल लिया।*

फिर क्या था,वह बिना देरी किये सन्यासी के पास पहुंची और बोली
” मैं बाल ले आई बाबा।”

“बहुत अच्छे।” और ऐसा कहते हुए सन्यासी ने बाल को जलती हुई आग में फ़ेंक दिया।

*"अरे ये क्या बाबा!! आप नहीं जानते इस बाल को लाने के लिए मैंने कितने प्रयत्न किये और आपने इसे जला दिया ……अब मेरी जड़ी-बूटी कैसे बनेगी ?”*
 महिला घबराते हुए बोली।

*"अब तुम्हे किसी जड़ी-बूटी की ज़रुरत नहीं है।” सन्यासी बोला। ” जरा सोचो,तुमने बाघ को किस तरह अपने वश में किया…। जब एक हिंसक पशु को धैर्य और प्रेम से जीता जा सकता है तो क्या एक इंसान को नहीं ? जाओ जिस तरह तुमने बाघ को अपना मित्र बना लिया उसी तरह अपने पति के अन्दर प्रेम भाव जागृत करो।”*

महिला सन्यासी की बात समझ गयी,अब उसे उसकी जड़ी-बूटी मिल चुकी थी।

 *हम बदलेंगे,युग बदलेगा*


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शर्मिंदा ...............
 फ़ोन की घंटी तो सुनी मगर आलस की वजह से रजाई में ही लेटी रही। उसके पति राहुल को आखिर उठना ही पड़ा। दूसरे कमरे में पड़े फ़ोन की घंटी बजती ही जा रही थी।इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी नहीं देता, इसी चिड़चिड़ाहट में उसने फ़ोन उठाया। “हेल्लो, कौन” तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गयी।
“नमस्ते पापा।” “बेटा, बहुत दिनों से तुम्हे मिले नहीं सो हम दोनों ११ बजे की गाड़ी से आ रहे है। दोपहर का खाना साथ में खा कर हम ४ बजे की गाड़ी वापिस लौट जायेंगे। ठीक है।” “हाँ पापा, मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।”
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फ़ोन रख कर वापिस कमरे में आ कर उसने रचना को बताया कि मम्मी पापा ११ बजे की गाड़ी से आरहे है और दोपहर का खाना हमारे साथ ही खायेंगे।
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रजाई में घुसी रचना का पारा एक दम सातवें आसमान पर चढ़ गया। “कोई इतवार को भी सोने नहीं देता, अब सबके के लिए खाना बनाओ। पूरी नौकरानी बना दिया है।” गुस्से से उठी और बाथरूम में घुस गयी। राहुल हक्का बक्का हो उसे देखता ही रह गया।
 जब वो बाहर आयी तो राहुल ने पूछा “क्या बनाओगी।” गुस्से से भरी रचना ने तुनक के जवाब दिया “अपने को तल के खिला दूँगी।” राहुल चुप रहा और मुस्कराता हुआ तैयार होने में लग गया, स्टेशन जो जाना था।
 थोड़ी देर बाद ग़ुस्सैल रचना को बोल कर वो मम्मी पापा को लेने स्टेशन जा रहा है वो घर से निकल गया।
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रचना गुस्से में बड़बड़ाते हुए खाना बना रही थी।
 दाल सब्जी में नमक, मसाले ठीक है या नहीं की परवाह किए बिना बस करछी चलाये जा रही थी। कच्चा पक्का खाना बना बेमन से परांठे तलने लगी तो कोई कच्चा तो कोई जला हुआ। आखिर उसने सब कुछ ख़तम किया, नहाने चली गयी।
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नहा के निकली और तैयार हो सोफे पर बैठ मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगी।उसके मन में तो बस यह चल रहा था कि सारा संडे खराब कर दिया। बस अब तो आएँ , खाएँ और वापिस जाएँ ।
 थोड़ी देर में घर की घंटी बजी तो बड़े बेमन से उठी और दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही उसकी आँखें हैरानी से फटी की फटी रह गयी और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका।
 सामने राहुल के नहीं उसके अपने मम्मी पापा खड़े थे जिन्हें राहुल स्टेशन से लाया था।
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मम्मी ने आगे बढ़ कर उसे झिंझोड़ा “अरे, क्या हुआ। इतनी हैरान परेशान क्यों लग रही है। क्या राहुल ने बताया नहीं कि हम आ रहे हैं।” जैसे मानो रचना के नींद टूटी हो “नहीं, मम्मी इन्होंने तो बताया था पर…. रर… रर। चलो आप अंदर तो आओ।” राहुल तो अपनी मुसकराहट रोक नहीं पा रहा था।
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कुछ देर इधर उधर की बातें करने में बीत गया। थोड़ी देर बाद पापा ने कहाँ “रचना, गप्पे ही मारती रहोगी या कुछ खिलाओगी भी।” यह सुन रचना को मानो साँप सूँघ गया हो। क्या करती, बेचारी को अपने हाथों ही से बनाए अध पक्के और जले हुए खाने को परोसना पड़ा। मम्मी पापा खाना तो खा रहे थे मगर उनकी आँखों में एक प्रश्न था जिसका वो जवाब ढूँढ रहे थे। आखिर इतना स्वादिष्ट खाना बनाने वाली उनकी बेटी आज उन्हें कैसा खाना खिला रही है।
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रचना बस मुँह नीचे किए बैठी खाना खा रही थी। मम्मी पापा से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। खाना ख़तम कर सब ड्राइंग रूम में आ बैठे। राहुल कुछ काम है अभी आता हुँ कह कर थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गया। राहुल के जाते ही मम्मी, जो बहुत देर से चुप बैठी थी बोल पड़ी “क्या राहुल ने बताया नहीं था की हम आ रहे हैं।”
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तो अचानक रचना के मुँह से निकल गया “उसने सिर्फ यह कहाँ था कि मम्मी पापा लंच पर आ रहे हैं, मैं समझी उसके मम्मी पापा आ रहे हैं।”
फिर क्या था रचना की मम्मी को समझते देर नहीं लगी कि ये मामला है। बहुत दुखी मन से उन्होंने रचना को समझाया “बेटी, हम हों या उसके मम्मी पापा तुम्हे तो बराबर का सम्मान करना चाहिए। मम्मी पापा क्या, कोई भी घर आए तो खुशी खुशी अपनी हैसियत के मुताबिक उसकी सेवा करो। बेटी, जितना किसी को सम्मान दोगी उतना तुम्हे ही प्यार और इज़्ज़त मिलेगी। जैसे राहुल हमारी इज़्ज़त करता है उसी तरह तुम्हे भी उसके माता पिता और सम्बन्धियों की इज़्ज़त करनी चाहिए। रिश्ता कोई भी हो, हमारा या उसका, कभी फर्क नहीं करना।”
रचना की आँखों में ऑंसू आ गए और अपने को शर्मिंदा महसूस कर उसने मम्मी को वचन दिया कि आज के बाद फिर ऐसा कभी नहीं होगा..!
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