Tuesday, September 25, 2018

Inspirational Stories --'साक्षी_की_साधना/आदतें औकात का पता बता देती हैं

साक्षी_की_साधना
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             बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया, दीक्षा के दूसरे ही दिन एक श्राविका के घर उसे भिक्षा लेने बुद्ध ने भेज दिया। वह वहां जाने निकला। रास्ते में दो तीन घटनाएं घटीं, उनसे वह बहुत परेशान हो गया। रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो भोजन प्रिय हैं, वे तो अब नहीं मिलेंगे। लेकिन श्राविका के घर जाकर पाया कि वही भोजन की थाली हैं जो उसे बहुत प्रीतिकर हैं। वह बहुत हैरान हुआ। यहां तो जो मुझे पसंद है वही आज बना है। वह भोजन करता है तभी उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद में मैं विश्राम करता था दो घड़ी, आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। लेकिन तभी उस श्राविका ने कहा कि भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। वह बहुत हैरान हुआ। जब वह सोचता था यह तभी उसने यह कहा था, फिर भी सोचा संयोग कि ही बात होगी कि मेरे मन में भी बात आई और उसके मन में भी सहज बात आई कि भोजन के बाद भिक्षु विश्राम कर ले।

              चटाई बिछा दी गई, वह लेट गया, लेटते ही उसे खयाल आया कि आज न तो अपना कोई साया है, न कोई छप्पर है अपना, न अपना कोई बिछौना है, अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है। यह सोचता ही था, की वह श्राविका लौटी, उसने पीछे से कहा:  भंते! ऐसा क्यों सोचते हैं? न तो किसी की शय्या है, न किसी का साया है। अब संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट थी। वह उठ कर बैठ गया और उसने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में हूं, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंतःकरण तुम पढ़ लेती हो? उस श्राविका ने कहा:  निश्चित ही। पहले तो, सबसे पहले स्वयं के विचारों का निरीक्षण शुरू किया था, अब तो हालत उलटी हो गई, स्वयं के विचार तो निरीक्षण करते-करते क्षीण हो गए और विलीन हो गए, मन हो गया निर्विचार, अब तो जो निकट होता है उसके विचार भी निरीक्षण में आ जाते हैं। वह भिक्षु घबड़ा कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं जाऊं, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। उस श्राविका ने कहा:  इतने घबड़ाते क्यों हैं? इसमें घबड़ाने की क्या बात है? लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटा, लौटकर उसने बुद्ध से कहा: भंते क्षमा करें, उस द्वार पर अब दुबारा भिक्षा मांगने मैं न जा सकूंगा।

बुद्ध ने कहा:  श्रमण, तुमसे कुछ गलती हुई? तुमसे वहां कोई भूल हुई?

            उस भिक्षु ने कहा:  न तो भूल हुई, न कोई गलती, बहुत आदर-सम्मान और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला, लेकिन वह श्राविका, वह युवती दूसरे के मन के विचारों को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी उठा था, वह भी पढ़ लिया गया होगा? अब मैं कैसे वहां जाऊं? कैसे उसके सामने खड़ा होऊंगा? मैं नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!

              बुद्ध ने कहा: श्रमण, तुम्हें वहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी क्षमा मांगनी थी तो भिक्षु नहीं होना था। जान कर वहां भेजा है। और जब तक मैं न रोकूंगा, तब तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौनसे विचार उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और कुछ भी मत करना, लड़ना मत जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं उठता।

            वह दूसरे दिन भी वहीं गया। सोच लें उसकी जगह आप ही जा रहे हैं, और वह श्राविका आपका मन पढ़ लेती है, और वह बहुत सुंदर है, बहुत आकर्षक है, बहुत सम्मोहक है, और वह मन पढ़ लेती है आपका। हां, मन न पढ़ती होती, यह आपको पता न होता, तो फिर मन में आप कुछ भी करते, आज क्या करेंगे? आज आप ही जा रहे हैं उसकी जगह भिक्षा मांगने, रास्ते पर आप ही हैं।

              वह भिक्षु बहुत खतरे में है, अपने मन को देख रहा है, जागा हुआ है, आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा है सड़क पर, जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, उसका होश बढ़ने लगा, भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और चीजें साफ दिखाई पड़ने लगीं और विचार घूमते हुए मालूम होने लगे। जैसे उसकी सीढ़ियां चढ़ा, एक सन्नाटा छा गया भीतर, होश परिपूर्ण जग गया। अपना पैर भी उठाता है तो उसे मालूम पड़ रहा है, श्वास भी आती-जाती है तो उसके बोध में है। जरा सा भी कंपन विचार का भीतर होता है, लहर उठती है कोई वासना की, वह उसको दिखाई पड़ रही है। वह घर के भीतर प्रविष्ट हुआ, मन में और भी गहरा शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ है। जैसे किसी घर में दीया जल रहा हो और एक-एक चीज, कोना-कोना प्रकाशित हो रहा हो।

               वह भोजन को बैठा, उसने भोजन किया, वह उठा, वह वापस लौटा, वह उस दिन नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा: भंते, अदभुत हुई बात। जैसे-जैसे मैं उसके निकट पहुंचा और जैसे-जैसे मैं जागा हुआ हो गया, वैसे-वैसे मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो गईं, और मैं जब उसके घर में गया तो मेरे भीतर पूर्ण सन्नाटा था, वहां कोई विचार नहीं था, कोई वासना नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।

            बुद्ध ने कहा: श्रमण, इसी बात के लिए तुम्हें वहां भेजा था, अब कल से वहां जाने की जरूरत नहीं। अब जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई कालिमा, कोई कलुष रह जाने वाला नहीं है।
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क्या हम आप असली संत पाकर संतुष्ट हो सकते हैं....
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मेरी मां गलती से असली बाबा के पास चली गई. मेरी बीवी की शिकायत करने लगी. कहा - बहू ने बेटे को बस में कर रखा है, कुछ खिला-पिला दिया है, इल्म जानती है, उसकी काट चाहिए.

असली बाबा ने कहा - माताजी आप बूढ़ी हो गई हैं. भगवान के भजन कीजिए. बेटा जिंदगी भर आपके पल्लू से बंधा रहा. अब उसे जो चाहिए, वो कुदरतन उसकी बीवी के पास है. आपकी बहू कोई इल्म नहीं जानती. अगर आपको बेटे से वाकई मुहब्बत है, तो जो औरत उसे खुश रख रही है, उससे आप भी खुश रहिए.

मेरी मां आकर उस असली बाबा को कोस रही है क्योंकि उसने हकीकत बयान कर दी. मेरी मां चाहती थी कि बाबा कहे हां तुम्हारी बहू टोना टोटका जानती है. फिर बाबा उसे टोना तोड़ने का उपाय बताते और पैसा लेते. मेरी मां पैसा लेकर गई थी, मगर बाबा ने पैसा नहीं लिया.

कहा - तुम्हारी बहू को कुछ बनवा दो इससे.

मेरी मां और जल-भुन गई. मेरी मां को नकली बाबा चाहिए, असली नहीं.

मेरी बीवी भी असली बाबा के पास चली गई. कहने लगी - सास ने ऐसा कुछ कर रखा है कि मेरा पति मुझसे ज्यादा अपनी मां की सुनता है.

असली बाबा ने कहा - बेटी तुम तो कल की आई हुई हो,अगर तुम्हारा पति मां की इज्जत करता है, मां की बात मानता है, तो फख्र करो कि तुम श्रेष्ठ पुरुष की बीवी हो. तुम पतिदेव से ज्यादा सेवा अपनी सास की किया करो, तुमसे भी भगवान खुश होगा.

मेरी बीवी भी उस असली बाबा को कोस रही है. वो चाहती थी कि बाबा उसे कोई ताबीज दें, या कोई मन्त्र लिख कर दे दें, जिसे वो मुझे घोलकर पिला दे. मगर असली बाबा ने उसे ही नसीहत दे डाली. उसे भी असली नहीं, नकली बाबा चाहिए.

मेरे एक रिश्तेदार कंजूस हैं. उन्हें केंसर हुआ और वे भी असली बाबा के पास पहुंच गए. असली बाबा से केंसर का इलाज पूछने लगे.

बाबा ने उसे डांट कर कहा - भाई इलाज कराओ, भभूत से भी कहीं कोई बीमारी अच्छी होती है. हम रूहानी बीमारियों का इलाज करते हैं, कंजूसी भी एक रूहानी बीमारी है. जाओ अस्पताल जाओ, यहां मत आना.

उन्हें भी उस असली सन्त से चिढ़ हुई. कहने लगे - नकली है साला, कुछ जानता-वानता नहीं.

एक और रिश्तेदार चले गए असल सन्त के पास,पूछने लगे - धंधे में घाटा जा रहा है, कुछ दुआ कर दो.

सन्त ने कहा - दुआ से क्या होगा धंधे पर ध्यान दो. बाबा फकीरों के पास बैठने की बजाय दुकान पर बैठो, बाजार का जायजा लो कि क्या चल रहा है.

वे भी आकर खूब चिढ़े. वे चाह रहे थे कि बाबा कोई दुआ पढ़ दें. मगर असली सन्त इस तरह लोगों को झूठे दिलासे नहीं देते. इसीलिए लोगों को असली बाबा,असली संत, ईश्वर के असल बंदे नहीं चाहिए.

कबीर को, नानक को, रैदास को इसीलिए तकलीफें उठानी पड़ीं कि ये लोग सच बात कहते थे. किसी का लिहाज नहीं करते थे.

नकली फकीरों, और साधु संतों की चल-हल इसीलिए संसार में ज्यादा है, क्योंकि लोग झूठ सुनना चाहते हैं, झूठ पर यकीन करना चाहते हैं, झूठे दिलासों में जीना चाहते हैं. सो लाख कह दिया जाए फलाँ फर्जी है, मगर लोगों फर्जी संत चाहिए.

*इस कठोर दुनिया में झूठ और झूठे दिलासे ही उनका सहारा हैं. सो जैसी डिमांड वैसी सप्लाई*

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आदतें औकात का पता बता देती हैं

एक राजा के दरबार मे एक अजनबी इंसान नौकरी मांगने के लिए आया।

उससे उसकी क़ाबलियत पूछी गई,
तो वो बोला,
"मैं आदमी हो चाहे जानवर, शक्ल देख कर उसके बारे में बता सकता हूँ।
राजा ने उसे अपने खास "घोड़ों के अस्तबल का इंचार्ज" बना दिया।
चंद दिनों बाद राजा ने उससे अपने सब से महंगे और मनपसन्द घोड़े के बारे में पूछा,
उसने कहा, "नस्ली नही हैं ।"

राजा को हैरानी हुई, उसने जंगल से घोड़े वाले को बुला कर पूछा..
उसने बताया, घोड़ा नस्ली तो हैं, पर इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है।
राजा ने अपने नौकर को बुलाया और पूछा तुम को कैसे पता चला के घोड़ा नस्ली नहीं हैं ?"

"उसने कहा "जब ये घास खाता है तो गायों की तरह सर नीचे करके, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुह में लेकर सर उठा लेता हैं।😊

राजा उसकी काबलियत से बहुत खुश हुआ, उसने नौकर के घर अनाज ,घी, मुर्गे, और अंडे बतौर इनाम भिजवा दिए।

और उसे रानी के महल में तैनात कर दिया।
चंद दिनो बाद , राजा ने उस से रानी के बारे में राय मांगी, उसने कहा, "तौर तरीके तो रानी जैसे हैं लेकिन पैदाइशी नहीं हैं।”

राजा के पैरों तले जमीन निकल गई, उसने अपनी सास को बुलाया, मामला उसको बताया, सास ने कहा "हक़ीक़त ये हैं, कि आपके पिताजी ने मेरे पति से हमारी बेटी की पैदाइश पर ही रिश्ता मांग लिया था, लेकिन हमारी बेटी 6 माह में ही मर गई थी, लिहाज़ा हम ने आपके रजवाड़े से करीबी रखने के लिए किसी और की बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।"

राजा ने फिर अपने नौकर से पूछा "तुम को कैसे पता चला ?"

""उसने कहा, " रानी साहिबा का नौकरो के साथ सुलूक गंवारों से भी बुरा हैं । एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने का एक तरीका होता हैं, जो रानी साहिबा में बिल्कुल नही।

राजा फिर उसकी पारखी नज़रों से खुश हुआ और बहुत से अनाज , भेड़ बकरियां बतौर इनाम दीं साथ ही उसे अपने दरबार मे तैनात कर दिया।

कुछ वक्त गुज़रा, राजा ने फिर नौकर को बुलाया,और अपने बारे में पूछा।

नौकर ने कहा "जान की सलामती हो तो कहूँ।”

राजा ने वादा किया।

उसने कहा, "न तो आप राजा के बेटे हो और न ही आपका चलन राजाओं वाला है।"

राजा को बहुत गुस्सा आया, मगर जान की सलामती का वचन दे चुका था, राजा सीधा अपनी मां के महल पहुंचा।

मां ने कहा,
"ये सच है, तुम एक चरवाहे के बेटे हो, हमारी औलाद नहीं थी तो तुम्हे गोद लेकर हम ने पाला।”

राजा ने नौकर को बुलाया और पूछा , बता, "तुझे कैसे पता चला ?”

उसने कहा " जब राजा किसी को "इनाम दिया करते हैं, तो हीरे मोती और जवाहरात की शक्ल में देते हैं....लेकिन आप भेड़, बकरियां, खाने पीने की चीजें दिया करते हैं...ये रवैया किसी राजाओं का नही, किसी चरवाहे के बेटे का ही हो सकता है।"

किसी इंसान के पास कितनी धन दौलत, सुख समृद्धि, रुतबा, इल्म, बाहुबल हैं ये सब बाहरी दिखावा हैं ।
इंसान की असलियत की पहचानउसके व्यवहार और उसकी नियत से होती हैं...

हैसियत बदल जाती है,पर सोच नही।🌹🌹


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*जीवन एक संघर्ष गाथा है*

एक आदमी हर रोज सुबह बगीचे में टहलने जाता था | एक बार उसने बगीचे में एक पेड़ की टहनी पर एक तितली का कोकून (छत्ता) देखा | अब वह रोजाना उसे देखने लगा | एक दिन उसने देखा कि उस कोकून में एक छोटा सा छेद हो गया है | उत्सुकतावश वह उसके पास जाकर बड़े ध्यान से उसे देखने लगा | थोड़ी देर बाद उसने देखा कि एक छोटी तितली उस छेद में से बाहर आने की कोशिश कर रही है लेकिन बहुत कोशिशो के बाद भी उसे बाहर निकलने में तकलीफ हो रही है | उस आदमी को उस पर दया आ गयी | उसने उस कोकून का छेद इतना बड़ा कर दिया कि तितली आसानी से बाहर निकल जाये | कुछ समय बाद तितली कोकून से बाहर आ गयी लेकिन उसका शरीर सूजा हुआ था और पंख भी सूखे पड़े थे | आदमी ने सोचा कि तितली अब उड़ेगी लेकिन सूजन के कारण तितली उड़ नहीं सकी और कुछ देर बाद मर गयी |

दरअसल भगवान ने ही तितली के कोकून से बाहर आने की प्रक्रिया को इतना कठिन बनाया है जिससे की संघर्ष करने के दौरान तितली के शरीर पर मौजूद तरल उसके पंखो तक पहुँच सके और उसके पंख मजबूत होकर उड़ने लायक बन सकें और तितली खुले आसमान में उडान भर सके | यह संघर्ष ही उस तितली को उसकी क्षमताओं का एहसास कराता है |

यही बात हम पर भी लागू होती है | मुश्किलें , समस्यायें हमें कमजोर करने के लिए नहीं बल्कि हमें हमारी क्षमताओं का एहसास कराकर अपने आप को बेहतर बनाने के लिए हैं अपने आप को मजबूत बनाने के लिए हैं |
इसलिए जब भी कभी आपके जीवन में मुश्किलें या समस्यायें आयें तो उनसे घबरायें नहीं बल्कि डट कर उनका सामना करें | संघर्ष करते रहें तथा नकारात्मक विचार त्याग कर सकारात्मकता के साथ प्रयास करते रहें | एक दिन आप अपने मुश्किल रूपी कोकून से बाहर आयेंगे और खुले आसमान में उडान भरेंगे अर्थात आप जीत जायेंगे | आप सभी मुश्किलों , समस्यायों पर विजय पा लेंगे।


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*बहुत प्यारा सन्देश*

कभी आपका बस की सबसे पीछे वाली सीट पर बैठने का मौका लगा है l यदि नही ; तो कभी गौर करना  l और हा - तो आपने महसूस किया होगा कि  पीछे की सीट पर धक्के ज्यादा महसूस होते है l चालक तो सबके लिए एक ही है l बस की गति भी समान है l फिर ऐसा क्यों ? साहब जिस बस में आप सफर कर रहे है उसके चालक से आपकी दूरी जितनी ज्यादा होगी - आपकी यात्रा में धक्के भी उतने ही ज्यादा होंगे l

 आपकी जीवन यात्रा के सफर में भी जीवन की गाड़ी के चालक "परमपिता" से आपकी दूरी जितनी ज्यादा होगी आपको ज़िन्दगी में "धक्के" उतने ही ज्यादा खाने पड़ेंगे l अपनी रोज़ की दिनचर्या में यथासंभव कुछ समय अपने "आराध्य" के समीप बैठो और उनसे अपने मन की बात एकदम साफ शब्दों में कहो l आप स्वयं एक अप्रत्याशित चमत्कार महसूस करेंगे।


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गीता पढ़ने के दुर्लभ लाभ.....

1. जब हम पहली बार भगवत गीता पढ़ते हैं। तो हम एक अंधे व्यक्ति के रूप मे पढ़ते हैं बस इतानाही समझ मे आता हैं कि कौन किसके पिता, कौन किसकी बहन, कौन किसका भाई। बस इससे ज्यादा कुछ समझ मे नही आता।

2. जब दुसरी बार भगवत गीता पड़ते हैं तो हमारे मन मे सवाल जागते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया या उन्होंने वैसा क्यों किया।

3. जब तीसरी बार भगवत गीता को पड़ेंगे, तो हमें धीरे- धीरे उसके मतलब समझ मे आने शुरू हो जायेंगे। लेकिन हर एक को वो मतलब अपने तरीके से ही समझ मे आयेंगे।

4. जब चौथी बार हम भगवन गीता को पड़ेंगे, तो हर एक पात्र की जो भावनायें हैं, इमोशन... उसको आप समझ पायेंगे कि किसके मन मे क्या चल रहा हैं। जैसे अर्जुन के मन मे क्या चल रहा हैं या दुर्योधन के मन मे क्या चल रहा हैं। इसको हम समझ पायेंगे।

5. जब पाँचवी बार हम भगवत गीता को पड़ेंगे तो पूरा कुरूक्षेत्र हमारे मन मे खड़ा होता हैं, तैयार होता हैं, हमारे मन मे अलग- अलग प्रकार की कल्पनायें होती हैं।

6. जब हम छठी बार भगवत गीता को पढ़ते हैं, तब हमें ऐसा नही लगता कि हम पढ़ रहे हैं... हमें ऐसा ही लगता हैं कि कोई हमें बता रहा हैं।

7. जब सातवीं बार भगवत गीता को पड़ेंगे तब हम अर्जुन बन जाते हैं और ऐसा ही लगता हैं कि सामने वो ही भगवान हैं, जो मुझे ये बता रहे हैं।

8. और जब आठवीं बार भगवत गीता को पढ़ते हैं तब यह एहसास होता हैं कि कृष्ण कही बाहर नही हैं। वो तो हमारे अंदर हैं और हम उनके अंदर हैं। जब हम आठ बार भगवत गीता पढ़ लेंगे तब हमें गीता का महत्व पता चलेगा। कि संसार मे भगवत गीता से अलग कुछ हैं ही नही और इस संसार मे भगवत गीता ही हमारे मोक्ष का सबसे सरल उपाय हैं।
भगवत गीता मे ही मनुष्य के सारे प्रश्नों के उत्तर लिखें हैं। जो प्रश्न मनुष्य ईश्वर से पूछना चाहता हैं। वो बस गीता मे सहज ढ़़ग से लिखें हैं। मनुष्य की सारी परेशानियों के उत्तर भगवत गीता मे लिखें हैं। गीता अमृत हैं। समय निकाल कर गीता अवश्य पढ़ें।

जय श्रीकृष्ण

 


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