Saturday, October 20, 2018

What Lord Krishna Explains To Arjuna

 All What is presented below is compiled and presented by Sri Vijay Kumar Singhal 

वैदिक गीता (कड़ी - ६०)

*अध्याय २ का सार*

1. श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन जो इस प्रकार की बातें कर रहा है तो इसलिए नहीं कि उसके मन में युद्ध के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी है और वह अहिंसक वृत्ति का हो गया है। अर्जुन सैकड़ों युद्धों में अपना बल और कौशल दिखा चुका था। असंख्य वीरों का उसने संहार किया था। युद्ध उसकी प्रकृति में बसा हुआ था, वीरवृत्ति उसके रोम रोम में भरी हुई थी। वह कायरता को प्राप्त नहीं हुआ था। नपुंसकता का आरोप तो कृष्ण ने भी उसके ऊपर लगाकर देख लिया, लकिन वह तीर खाली गया। अर्जुन युद्ध के लिए पूरी तरह निश्यच करके और कृष्ण को अपना सारथी बनाकर ही कुरुक्षेत्र में आया था।

2. उस समय तक युद्ध अपरिहार्य हो गया था। युद्ध को टालने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा चुका था, परन्तु सभी प्रयास असफल हो गये थे। युधिष्ठिर केवल पांच गांवों की न्यूनतम मांग मान लेने पर भी समझौते के लिए तैयार थे। कृष्ण जैसे महान् विद्वान कूटनीतिज्ञ की मध्यस्थता भी निष्फल हो गयी थी। जब दुर्योधन ने साफ कह दिया कि यु़द्ध के बिना मैं सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा, तो युद्ध अवश्यंभावी हो गया था। ये सब बातें अर्जुन बहुत अच्छी तरह जानता था। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि उसके मन में अहिंसावृत्ति पैदा हो गयी थी। उसने युद्ध के विरोध में जितने भी तर्क दिये थे, कृष्ण ने पूरी गीता में उनमें से एक का भी उत्तर नहीं दिया है। फिर भी अर्जुन को समाधान हुआ है। इसका अर्थ यही है कि अर्जुन युद्धविरोधी या अहिंसक नहीं हुआ था।

3. इस सारे विश्लेषण के बाद कृष्ण इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अर्जुन मोहग्रस्त हो गया है। अपने मोह को सिद्धांतों का रूप देने के लिए ही वह ज्ञान बघारने लगा था। कृष्ण इसे समझ गये और इसीजिए उन्होंने अर्जुन की बातों पर ध्यान न देते हुए सीधे उसके मोह नाश का उपाय किया। गीता का सम्पूर्ण उपदेश अपने कर्तव्य पालन में बाधक बनने वाले इसी मोह पर गदा प्रहार है। अन्तिम अध्याय में जब सारा उपदेश दे चुकने के बाद श्रीकृष्ण ने पूछा- ‘अर्जुन तेरा मोह गया कि नहीं?’ तो अर्जुन उत्तर देता है, ‘हाँ, भगवन्, मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे अपने धर्म का ज्ञान हो गया। अब आप जो कह रहे हैं वही करूँगा।’ इस प्रकार गीता की भूमिका और उसके उपसंहार दोनों को मिलाकर देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मोह-नाश करना ही गीता का मुख्य उद्देश्य है।

*वैदिक गीता (कड़ी - ६१)*

*अध्याय २ का सार*

4. अर्जुन के मोह-नाश के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने तीन सिद्धान्तों का उपदेश दिया- सांख्य मार्ग, योग मार्ग
तथा स्वधर्माचरण की अनिवार्यता। कृष्ण ने अर्जुन की समस्या का इन तीनों दृष्टियों से विवेचन किया। इसमें उनका आशय यह है कि यदि शुरू में जीवन के मुख्य तत्व गले उतर जायें, जिनके आधार पर जीवन की
इमारत खड़ी करनी है, तो आगे का मार्ग सरल हो जाएगा। गीता में इन मूल सिद्धान्तों का नये नये अर्थों में
प्रयोग किया गया है। पुराने शब्दों का नये संदर्भों में प्रयोग करके नये भाव ग्रहण करना विचार क्रांति की
अहिंसक प्रक्रिया है। इससे गीता के सिद्धान्तों को व्यापक अर्थ मिला और अनेक विचारक अपनी-अपनी भावना तथा अनुभव के आधार पर अनेक अर्थ ले सके।

5. उपनिषद में एक कथा है कि एक बार देवता, दैत्य और मानव तीनों ब्रह्मा जी के पास उपदेश लेने गये।
ब्रह्मा ने तीनों को केवल एक ही अक्षर बताया- ‘द’। देवताओं, दैत्यों और मानवों ने इसका अपने-अपने अनुभव के अनुसार क्रमशः दमन, दया और दान का अर्थ लगाया। प्रजापति ब्रह्मा ने उन तीनों ही अर्थों को ठीक माना। इसी प्रकार गीता में भी सांख्य और योग इन दोनों मूल सिद्धान्तों का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है। यही गीता की विशेषता है।

6. सांख्य का अर्थ है- ‘सम्यक् ख्यायते इति सांख्य’ अर्थात् जिस मार्ग से युक्तिपूर्ण समझाया जाये वह सांख्य मार्ग है। इस अध्याय में अर्जुन की समस्या का सांख्य दृष्टि से विवेचन किया गया है। जिस प्रकार सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग माना गया है, उसी प्रकार इस अध्याय में शरीर और आत्मा, देह और देही का अलग-अलग विवेचन किया गया है। श्रीकृष्ण ने सांख्य दर्शन के अनुसार दो सिद्धान्तों को स्पष्ट किया है। पहला सिद्धान्त तो यह है कि ‘आत्मा अमर है, अविनाशी है’ और दूसरा सिद्धांत यह है कि ‘शरीर मरणधर्मा है, विनाशी है।’ जैसे हम पुराने कपड़े उतारकर नये पहन लेते हैं, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया धारण कर लेती है। इसे न शस्त्र छेद सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न पानी गला सकता है, न वायु सुखा सकती है। जो आत्मा इस प्रकार अमर है, उसके लिए यह सोचकर कि यह मर जाएगा, इस तरह शोक करना कहां तक संगत हो सकता है? इसी प्रकार जो उत्पन्न होता है, वह मरता ही है, मरना तो अपरिहार्य है, इससे कोई बच नहीं सकता। फिर शरीर के मरने पर हाय-हाय क्या करना? आत्मा अमर है, उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता और शरीर मरणधर्मा है उसे कोई बचा नहीं सकता, इसलिए कृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन, दोनों दृष्टियों से तेरा शोक करना निरर्थक है।

*वैदिक गीता (कड़ी - ६२)*

*अध्याय २ का सार*

७. श्रीकृष्ण ने ‘स्वधर्माचरण’ के नाम से एक तीसरे सिद्धांत की बात भी उठाई है। पिछले दोनों सिद्धांत ज्ञातव्य थे यानी जानने योग्य थे,  जबकि यह तीसरा सिद्धांत कर्तव्य है अर्थात् करने योग्य है। प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से अपना-अपना धर्म प्राप्त होता है। स्वधर्म को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता। यहाँ धर्म का अभिप्राय हिन्दू-मुस्लिम-यहूदी-ईसाई आदि प्रचलित धर्मों या पंथों से नहीं है, बल्कि अपने प्राकृतिक धर्म यानी कर्तव्य से है। मनुष्य की जो प्रकृति है, जैसा स्वभाव है, वही उसका धर्म है। जिस प्रकार हमारे माता-पिता जन्म से ही निश्चित होते हैं उसी प्रकार जन्म से ही हमारा धर्म भी निश्चित हो जाता है।

8. ब्राह्मण स्वभाव वाला व्यक्ति यदि व्यापार करने लगेगा, तो घाटा ही उठायेगा। वैश्व स्वभाव वाला व्यक्ति
यदि पढ़ाने-लिखाने का कार्य करेगा, तो हम समय वेतन की ही चिन्ता करेगा। इसी प्रकार युद्ध करना तो
क्षत्रियों का धर्म है, दुष्ट की दुष्टता, अन्यायी के अन्याय को सहन न करना ही क्षात्र-धर्म है। इसलिए सांख्य दर्शन के अनुसार अर्जुन को अपने क्षत्रियत्व रूपी धर्म का पालन करना चाहिए। स्वधर्म के अनुसार ही अपना कार्य करना हमारा कर्तव्य है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन! यदि तू क्षत्रिय है तो क्षत्रियोचित धर्म की ही बात कर और युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।

9. स्वधर्म हमें इतनी सहजता से प्राप्त है कि हमसे अपने आप उसी का पालन होते रहना चाहिए। परन्तु अनेक कारणों से ऐसा नहीं हो पाता और यदि होता भी है तो उसमें कई प्रकार के दोष आ जाते हैं। उन कारणों में प्रमुख है मोह अर्थात् संकीर्ण बुद्धि। ‘मैं और मेरे शरीर से सम्बंधित वस्तुएं ही मेरी हैं, बाकी सब कुछ दूसरों का है’ भेद की इस दीवार को ही मोह कहा जाता है। मेरे-तेरे के चक्कर में पड़कर हम अनेक प्रकार की दीवारें खड़ी कर लेते हैं। ये दीवारें ही स्वधर्माचरण में बाधा बनती हैं। ऐसी दशा में स्वधर्मनिष्ठा अकेली पर्याप्त नहीं
होती, उसके साथ अन्य दो सिद्धान्तों को भी याद रखना पड़ता है। एक तो यह कि मैं मरियल देह नहीं हूँ यह
तो केवल ऊपर की है और दूसरा यह कि मैं कभी न मरने वाला अखण्ड और व्यापक आत्मा हूँ। इन दोनों को
मिलाकर एक पूर्ण तत्वज्ञान होता है। इतना तत्वज्ञान यदि मन में अंकित हो जाये, तो फिर स्वधर्म हमें बिल्कुल भारी नहीं पड़ेगा।

*वैदिक गीता (कड़ी - ६३)*

*अध्याय २ का सार*

10. अर्जुन के सामने युद्ध क्षेत्र में जो समस्या उत्पन्न हुई थी, वही समस्या हमारे जीवन-क्षेत्र में हमारे सामने
प्रत्येक क्षण उत्पन्न होती रहती है। इन समस्याओं का हल भगवान श्रीकृष्ण ने दो प्रकार से दिया। एक तो सांख्य की दृष्टि से, कि यह याद रखकर चलें कि आत्मा अमर है, देह नाशवान् है और हमें अपने धर्म का पालन करना है। दूसरा हल योग दृष्टि से यह कहकर दिया कि मानव के जीवन की समस्या कर्मकाण्ड से, भोगवाद से तथा कामनाओं से हल नहीं हो सकती, बल्कि इसका हल कर्मयोग है। जीवन के सिद्धान्तों केा व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को योग कहते हैं। ‘सांख्य’ का अर्थ है सिद्धान्त और ‘योग’ का अर्थ है व्यवहार या कला।

11. कर्मयोग का अर्थ बताते हुए भगवान कृष्ण ने कहा कि कर्म तो अवश्य करो, लेकिन फल में अपना अधिकार मत मानो। यदि फल के प्रति आसक्ति छोड़़ दी जाये तो मनुष्य को सुख-दुख दोनों ही अनुभव नहीं होंगे और वह सन्तोष से रह सकेगा। हमें दुःख तभी अनुभव होता है, जब हमें कर्म के फल की प्राप्ति नहीं होती और फल प्राप्त हो जाने पर सुख मालूम पड़ता है। इस प्रकार फल के प्रति आसक्ति ही सुख और दुःख का कारण है। यदि हम इस आसक्ति को छोड़ दें तो दुःख होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जो कर्म करता है उसे फल का अधिकार अवश्य है, परन्तु गीता का कर्मयोग कहता है कि तुम उस अधिकार को स्वेच्छा से छोड़ दो। तमोगुण कहता है कि यदि मैं फल छोडूंगा तो कर्म सहित छोडूंगा और रजोगुण कहता है कि मैं कर्म करूंगा तो फल भी लूंगा। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए हम दोनों से ऊपर उठकर सतोगुणी बनें अर्थात् हम कर्म तो करेंगे पर फल की इच्छा छोड़ देंगे और फल की इच्छा छोड़कर ही कर्म करेंगे। यही गीता का निष्काम कर्मयोग है।

12. फल की इच्छा मत करो, यह कहते हुए भगवान ने यह भी कहा है कि हमारा कर्म उत्कृष्ट अर्थात् श्रेष्ठ होना चाहिए। सकाम पुरुष के कर्म की अपेक्षा निष्काम पुरुष का कर्म अधिक अच्छा होना चाहिए। सकाम पुरुष फलासक्त होने के कारण फल सम्बंधी चिन्तन में अपना थोड़ा समय और श्रम अवश्य लगायेगा, किन्तु फल की इच्छा न रखने वाले व्यक्ति का तो प्रत्येक क्षण और सारी शक्ति कर्म में ही लगी रहेगी। नदी को कभी छुट्टी नहीं, हवा को विश्राम नहीं, सूर्य को आराम नहीं। इसी प्रकार निष्काम कर्ता सतत क्रियाशील होना चाहिए। ऐसे निरन्तर कार्यरत पुरुष का कम उत्कृष्ट होगा ही। चित्त की समता का योग होने पर हस्तकौशल में और अधिक निखार आता है। निष्काम पुरुष में चित्त का समत्व स्वयमेव उत्पन्न हो जाता है। अपने समस्त कर्मों को कुशलता के साथ करना ही योग है और यही सच्चे कर्मयोगी की पहचान है। यदि हम गहराई से विचार करें तो निष्काम कर्म ही सच्चा कर्म है। इस शरीर में इस कामनारहित स्वधर्माचरण रूपी सुन्दर फल लग चुकने के बाद और किसी फल की आवश्यकता नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि निष्काम कर्म करते हुए अकर्म की अर्थात् कर्म-मुक्ति की भी इच्छा मत रख। जब हम मोक्ष तक की इच्छा को छोड़ देते हैं, तभी सच्चे कर्मयोगी कहे जा सकते हैं।

*वैदिक गीता (कड़ी - ६४)*

*अध्याय २ का सार*

13. अर्जुन की जिज्ञासा है- ‘भगवन् ऐसे पुरुष के लक्षण बताइए जिन्हें स्थितप्रज्ञ कहते हैं, जिनकी बुद्धि में ज्ञान योग समा गया है और जिनके रोम रोम में कर्म योग व्याप्त हो गया है।’ इसलिए भगवान ने इस अध्याय के अन्तिम 17 श्लाकों में स्थितप्रज्ञ का उदात्त वर्णन किया है। ‘स्थितप्रज्ञ’ यानी स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य! परन्तु संयम के बिना बुद्धि स्थिर कैसे होगी? गीता का कहना है कि संसार के विषय ब़ड़े प्रबल हैं, इन्हें देखकर हमारी इन्द्रियां अपने को वश में नहीं रख सकतीं। मनुष्य कितना ही यत्न करे, पर इन्द्रियां उसे विषयों की ओर खींच ही ले जाती हैं। भले ही विषयों को भोगने से मन में क्षणिक शांति आती हो, परन्तु वह स्थायी शांति नहीं होती। हमें क्षणिक शांति नहीं चाहिए, हमें चिरकाल तक टिकने वाली ऐसी शांति चाहिए जिसमें बुद्धि भटकती न रहे, वरन् स्थिर होकर अमृतपान करती रहे। इसलिए गीता में स्थितप्रज्ञ को संयम मूर्ति बताया गया है। संयम का अर्थ है कि बुद्धि आत्मनिष्ठ हो और सभी आंतरिक इन्द्रियां बुद्धि के अधीन हों।स्थितप्रज्ञ सारी इन्द्रियों पर लगाम लगाकर उन्हें कर्मयोग में जोतता है।

14. यह इन्द्रिय संयम सरल नहीं है। विषय भोगों से इन्द्रियों को समेट लेना और परमार्थ के काम में उनका
उचित उपयोग करना बहुत कठिन संयम है। इसके लिए महान् प्रयत्न की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य मन की सभी कामनाओं को त्याग देता है, जब विषयों में शांति खोजने के बजाय आत्मा अपने में स्थित हो जाता है, जब वह सुख-दुःख को समान रूप से स्वीकार करता है, तब उसे शांति प्राप्त होती है। इसके लिए हमें मन को विषयों से मिलने वाले रसों से भी बड़े रस परमब्रह्म की अनुभूति में लगाना पड़ेगा। गीता ने इसी को ‘भक्ति’ कहा है। भक्तिरस के सामने संसार के समस्त रस तुच्छ हो जाते हैं और हमारा चित्त शांत हो जाता है।स्थितप्रज्ञ का यही रूप है।

*(अध्याय २ का सार समाप्त)*



— *विजय कुमार सिंघल*

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