Friday, March 8, 2019

यज्ञ, दान और तप। "सच्चाई का फल"

*वैदिक गीता (कड़ी - २०५)*

*अध्याय ११ का सार*

1. इस अध्याय में भगवान ने बताया है कि हमें तीन प्रकार के कार्य जीवनभर करते रहना चाहिए- यज्ञ, दान और तप। हमारे सभी कार्यों का सार इन तीन शब्दों में आ जाता है। यदि हम श्रद्धानुसार यज्ञ, दान एवं तप करते रहें, तो यह सृष्टि सुन्दर होगी, समाज सुन्दर होगा, शरीर सुंदर होगा। यही सच्चा धर्म है। हम इस संसार में इन तीन संस्थाओं- शरीर, सृष्टि तथा समाज- से घिरे रहते हैं और उनके ही नियमों से संचालित होते हैं। यज्ञ का सम्बंध सृष्टि से, दान का समाज से और तप का सम्बंध शरीर से है।

2. सृष्टि से हम प्रतिदिन काम लेते हैं। हम जहाँ रहते हैं वहाँ के वातावरण को अपनी साँसों द्वारा दूषित करते रहते हैं। हवा से हम शुद्ध प्राणवायु लेते हैं, लेकिन उसे फेंफडों से दूषित करके छोड़ देते हैं। सृष्टि की हानि की पूर्ति करना ही यज्ञ है। हम जन्म से ही सृष्टि के ऋणी हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें जो सेवाकार्य, जो कुछ निर्माण करना पड़ता है वह यज्ञ ही है। इस प्रकार हवन करना, अन्न पैदा करना, सफाई करना ये सब यज्ञ के ही रूप हैं।

3. समाज के साथ भी हम जन्म से ही जुड़े रहते हैं। माँ, बाप, गुरु, मित्र ये सब हमारे लिए मेहनत करते हैं। समाज का भारी ऋण हमारे ऊपर चढ़ता जाता है। इस ऋण को चुकाने के लिए ही दान की व्यवस्था की गयी है। दान परोपकार नहीं है, बल्कि समाज से लिये गये ऋण को चुकाने का प्रयोग है। समाज से मैंने अपार सेवा ली है, समाज ने मुझे छोटे से बड़ा बनाया है, नीचे से ऊपर उठाया है। इसलिए मुझे भी समाज की सेवा करनी चाहिए। समाज के इस ऋण को चुकाने के लिए तन, मन, धन तथा अन्य साधनों से जो सेवा की जाती है, वह दान है।

4. तीसरी संस्था है शरीर। शरीर भी प्रतिदिन छीजता रहता है। हम अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों से बहुत काम लेते हैं, जिससे इनमें छीजन और विकार पैदा होते रहते हैं। इन विकारों दोषों को दूर करने के लिए जो कुछ किया जाता है वह तप है। शरीर को अनेक प्रकार से कष्ट देना तप नहीं है, बल्कि यह तप का विकृत स्वरूप है। सच्चा तप है मन, बुद्धि और शरीर के विकारों को निकालना। उचित आहार विहार द्वारा ही यह सम्भव है। योग प्राणायाम, जिनसे शरीर की शुद्धि होती है, भी तप के अन्तर्गत आते हैं।

5. इन तीनों संस्थाओं - सृष्टि, समाज और शरीर- को सुन्दर रखने के लिए हमें बहुत प्रयत्न करना पड़ेगा। यदि हम इनको कुछ सुधार करके या कम से कम जैसे मिले हैं वैसे ही छोड़कर जायें, तो यह हमारी बहुत बड़ी सफलता होगी। ऐसी सफलता प्राप्त करने के लिए हमें यज्ञ, तप और दान के त्रिविध कार्यक्रम को व्यवहार में लाना चाहिए। लेकिन हम ये कार्य केवल दिखाने के लिए करें और मन में श्रद्धा न हो, तो सब व्यर्थ है। इसलिए भगवान ने श्रद्धा पर बल दिया है। श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ, दान और तप ही सात्विक होते हैं और उनसे ही बाह्य तथा आंतरिक शुद्धि होती है। सात्विकता की यह योजना करने में गीता का उद्देश्य दोहरा है। बाहर से यज्ञ, दान और तप के रूप में जो विश्व सेवा चल रही है, भीतर से उसी को आध्यात्मिक साधना का रूप दिया जाना चाहिए। सृष्टि की सेवा और साधना ये दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हैं, बल्कि वास्तव में एक ही प्रयत्न या कर्म के दो पहलू हैं। इस प्रकार जो कार्य किया जाये, अन्त में उसे भी ईश्वरार्पण करना है। समाज सेवा, साधना और ईश्वरार्पण इनके योग से ही कर्मयोग पूर्ण होता है।

*॥अध्याय ११ का सार समाप्त॥*

*(क्रमश:)*

— *विजय कुमार सिंघल*

__________________________
.                          "सच्चाई का फल"
          किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था। चोर जब ज्यादा बूढ़ा हो गया तो अपने बेटे को चोरी की विद्या सिखाने लगा। कुछ ही दिनों में वह लड़का चोरी विद्या में प्रवीण हो गया। दोनों बाप बेटा आराम से जीवन व्यतीत करने लगे।
         एक दिन चोर ने अपने बेटे से कहा-- ”देखो बेटा, साधु-संतों की बात कभी नहीं सुननी चाहिए। अगर कहीं कोई महात्मा उपदेश देता हो तो अपने कानों में उंगली डालकर वहाँ से भाग जाना, समझे ! ”हां बापू, समझ गया!“
         एक दिन लड़के ने सोचा, क्यों न आज राजा के घर पर ही हाथ साफ कर दूँ। ऐसा सोचकर उधर ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा कि रास्ते में बगल में कुछ लोग एकत्र होकर खड़े हैं। उसने एक आते हुए व्यक्ति से पूछा,-- ”उस स्थान पर इतने लोग क्यों एकत्र हुए हैं ?“ उस आदमी ने उत्तर दिया- ”वहां एक महात्मा उपदेश दे रहे हैं !“ यह सुनकर उसका माथा ठनका। ‘इसका उपदेश नहीं सुनूँगा ऐसा सोचकर अपने कानों में उंगली डालकर वह वहाँ से भाग निकला। जैसे ही वह भीड़ के निकट पहुँचा एक पत्थर से ठोकर लगी और वह गिर गया। उस समय महात्मा जी कह रहे थे, ”कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। जिसका नमक खाएँ उसका कभी बुरा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा करने वाले को भगवान सदा सुखी बनाए रखते हैं।“ ये दो बातें उसके कान में पड़ीं। वह झटपट उठा और कान बंद कर राजा के महल की ओर चल दिया।
         महल पहुंचकर जैसे ही अंदर जाना चाहा कि उसे वहाँ बैठे पहरेदार ने टोका,- ”अरे कहां जाते हो ? तुम कौन हो ?“ उसे महात्मा का उपदेश याद आया, ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए।’ चोर ने सोचा, आज सच ही बोल कर देखें। उसने उत्तर दिया- ”मैं चोर हूँ, चोरी करने जा रहा हूँ।“  ”अच्छा जाओ।“ उसने सोचा राजमहल का नौकर होगा। मजाक कर रहा है। चोर सच बोलकर राजमहल में प्रवेश कर गया। एक कमरे में घुसा। वहाँ ढे़र सारा पैसा तथा जेवर देख उसका मन खुशी से भर गया। एक थैले में सब धन भर लिया और दूसरे कमरे में घुसा, वहाँ रसोई घर था। अनेक प्रकार का भोजन वहाँ रखा था। वह खाना खाने लगा।
         खाना खाने के बाद वह थैला उठाकर चलने लगा कि तभी फिर महात्मा का उपदेश याद आया, ‘जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत सोचो।’ उसने अपने मन में कहा, ‘खाना खाया उसमें नमक भी था। इसका बुरा नहीं सोचना चाहिए।’ इतना सोचकर, थैला वहीं रख वह वापस चल पड़ा। पहरेदार ने फिर पूछा-- ”क्या हुआ, चोरी क्यों नहीं की ?“ देखिए जिसका नमक खाया है, उसका बुरा नहीं सोचना चाहिए। मैंने राजा का नमक खाया है, इसलिए चोरी का माल नहीं लाया। वहीं रसोई घर में छोड़ आया।“ इतना कहकर वह वहाँ से चल पड़ा। उधर रसोइए ने शोर मचाया- ”पकड़ो, पकड़ों चोर भागा जा रहा है।“ पहरेदार ने चोर को पकड़कर दरबार में उपस्थित किया।
           राजा के पूछने पर उसने बताया कि एक महात्मा के द्वारा दिए गए उपदेश के मुताबिक मैंने पहरेदार के पूछने पर अपने को चोर बताया क्योंकि मैं चोरी करने आया था। आपका धन चुराया लेकिन आपका खाना भी खाया, जिसमें नमक मिला था। इसीलिए आपके प्रति बुरा व्यवहार नहीं किया और धन छोड़ दिया। उसके उत्तर पर राजा बहुत खुश हुआ और उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी।
          वह दो-चार दिन घर नहीं गया तो उसके बाप को चिंता हुई कि बेटा पकड़ लिया गया- लेकिन चार दिन के बाद लड़का आया तो बाप अचंभित रह गया अपने बेटे को अच्छे वस्त्रों में देखकर। लड़का बोला- ”बापू जी, आप तो कहते थे कि किसी साधु संत की बात मत सुनो, लेकिन मैंने एक महात्मा के दो शब्द सुने और उसी के मुताबिक काम किया तो देखिए सच्चाई का फल।
सच्चे संत की वाणी में अमृत बरसता है, आवश्यकता आचरण में उतारने की है।

                            "जय श्रीकृष्णा "

No comments:

Post a Comment