Sunday, January 7, 2018

How Much Wealth Is Important

*सुखमय जीवन यात्रा-११* *दूजा सुख घर होवै माया (ख)*

*धन की अधिकता दु:खदायक है*

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा था कि सुखपूर्वक जीने के लिए हमारे पास पर्याप्त धन और आय का एक निश्चित स्रोत होना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि धन के अनुपात में हमारे सुख की मात्रा भी बढ़ती जाती है। कई लोग ऐसा ही समझते हैं, इसलिए हमेशा 99 के फेर में अर्थात् अधिक से अधिक धन कमाने के चक्कर में पड़े रहते हैं और अपने सुख को नष्ट करते रहते हैं।

धन कमाने के लिए हमें कर्म करना पड़ता है, चाहे वह शारीरिक हो, बौद्धिक हो या मानसिक। बिना कर्म किये यदि धन प्राप्त होता है, तो वह शीघ्र ही चला भी जाता है। धन कमाने के लिए किये जाने वाले कर्म अच्छे ही होने चाहिए। गलत कर्मों से प्राप्त किया हुआ धन हमेशा संकट ही लाता है चाहे वह देर से ही आये। धर्मानुसार कमाया गया धन आपकी आवश्यकताओं के अनुसार ही होता है।

धन के लिए कर्म करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि उसके कारण हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े, नहीं तो हमारा पहला सुख “निरोगी काया” खो जाएगा। कई लोग धन कमाने के लिए दिन रात परिश्रम करते रहते हैं और अपने स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। यह किसी भी हालत में उचित नहीं।

वास्तव में एक सीमा के बाद धन भी दु:खदायी हो जाता है। जब हमारी सम्पत्ति हमारी मौलिक आवश्यकताओं से अधिक हो जाती है, तो उसमें होने वाली किसी भी वृद्धि से हमारे सुख की मात्रा में वृद्धि नहीं होती, बल्कि वह अहंकार और कई चिंताओं को जन्म देने लगता है। जैसे-जैसे धन सम्पत्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे हमारी चिंताएँ भी बढ़ने लगती हैं। जिस अनुपात में चिन्तायें बढ़ती है, उसी अनुपात में सुख की भावना भी घटती है।

बढ़ते धन के साथ हमें अनेक चिन्तायें घेर लेती हैं, जैसे धन को सुरक्षित रखने की चिंता, उसको निवेश करने की चिंता ताकि वह बढ़ता रहे, अपना स्तर बनाये रखने की चिंता, अपने सामाजिक सम्बंध बनाये रखने की चिंता आदि-आदि। धनी व्यक्ति अनेक लोगों की ईर्ष्या का पात्र हो जाता है, लोग यह सोचने लगते हैं कि उसने जरूर गलत तरीक़े से कमाया होगा, भले ही वह पूरी तरह ईमानदार हो।

कहावत है कि *बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया।* इस धन के कारण सगे सम्बंधी भी आपके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शत्रु बन जाते हैं, जिसके कारण आप कभी चैन की नींद नहीं सो पाते। इसलिए कहते हैं कि अधिक धन संकट लाता है और बहुत अधिक धन बहुत संकट लाता है।

वास्तव में धन से भी अधिक ख़तरनाक चीज़ है उसका अहंकार और लोभ। हमारी संस्कृति में धन को “लक्ष्मी” कहा जाता है और उसकी सवारी माना जाता है- उल्लू। इसका सीधा सा मतलब यही है कि जिसके ऊपर लक्ष्मी सवार हो जाती है वह उल्लू बन जाता है। उसे दिन में भी अपना भला-बुरा कुछ दिखाई नहीं देना अर्थात् उसका विवेक नष्ट हो जाता है। इसलिए कभी भी धन को अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए।

वैसे भी मनुष्य को अपनी उचित आवश्यकता से अधिक धन एकत्र करने की आवश्यकता ही नहीं है। एक पुरानी कहावत है- *पूत कपूत तो का धन संचय? पूत सपूत तो का धन संचय?* अर्थात् यदि आपका पुत्र कुपुत्र है तो उसके लिए धन एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह उस धन को गलत कामों में नष्ट कर देगा। यदि आपका पुत्र सुपुत्र है तो भी आपको धन एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह स्वयं अपने लिए धन कमा लेगा।

वेदों में कहा है- *मा गृध कस्यस्विद्धनम्* अर्थात् लालच मत करो, यह धन किसका है यानी किसी का नहीं है। इसलिए दूसरों के धन का ही नहीं, अपने धन का भी लालच नहीं करना चाहिए। अगर कभी आवश्यकता पड़ने पर आपको अपना सब कुछ त्यागना पड़े, तो भी उसे तिनके के समान त्यागने के लिए तैयार रहिए।

धन को अंग्रेज़ी में “money” कहा जाता है। मुद्रा को भी अंग्रेज़ी में “money” ही कहा जाता है। इसलिए जब तक आपका रुपया-पैसा आपके लिए केवल मुद्रा है, तब तक वह सही है, सुखकारी है। लेकिन जैसे ही आप उसे धन मानना शुरू कर देते हैं, वैसे ही वह दु:ख का कारण बनने लगता है। इसलिए सुखी रहने के लिए धन को मुद्रा ही बने रहने दीजिए।

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा था कि धन की तीन गतियाँ होती हैं- भोग, दान और नाश। जो धन न तो आप भोग सकते हैं और न दान करते हैं, उसका विनाश होना निश्चित है। ऐसी स्थिति आने पर बहुत दु:ख होता है, इसलिए सबसे अच्छा यह है कि अपनी आवश्यकता से अधिक धन को दान ही कर दिया जाये, ताकि वह समाज के काम में आये।

धन का दान भी हमेशा सुपात्रों को ही करना चाहिए। कुपात्र को दान देना भी धन का नाश होने के समान है। आपके दान का अधिकारी वह है जिसे वास्तव में उसकी आवश्यकता है या जो उसका उपयोग समाज हितकारी कार्यों में करता है। इसलिए हमें सदा समाज सेवा में संलग्न संस्थाओं को धन का दान करना चाहिए। ऐसी बहुत सी संस्थायें कार्यरत हैं।

बहुत से लोग मंदिरों में चढ़ावा देकर समझते हैं कि बहुत पुण्य का कार्य कर दिया। यदि मंदिर वाले स्कूल, कालेज, छात्रावास, वृद्धाश्रम, अनाथालय, गौशाला, महिला प्रशिक्षण केन्द्र, चिकित्सा केन्द्र, संस्कार केन्द्र आदि कुछ चलाते हों, तब तो ठीक है, वरना मंदिरों में दान देना बेकार ही है। इससे कई गुना अच्छा यह है कि अपना धन किसी समाजसेवी संस्था को दिया जाये, जो उसका सदुपयोग कर सके।

कहने का तात्पर्य है कि धर्मानुसार धन कमाना चाहिए और उसका सदुपयोग अपने सुख और समाज के हित के लिए करना चाहिए। अपनी आय का एक निश्चित भाग दान के लिए सुरक्षित रखना हमारा सामाजिक कर्तव्य है। इसमें दान देने वाले को असीम सुख मिलता है।

— *विजय कुमार सिंघल*
माघ कृ ६, सं २०७४ वि (७ जनवरी २०१८)

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